अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 19
श्येनी॒पती॒ सा ॥
स्वर सहित पद पाठश्येनी॒पती॑ । सा॥१२९.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
श्येनीपती सा ॥
स्वर रहित पद पाठश्येनीपती । सा॥१२९.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 19
विषय - सेवक के चार लक्षण
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में वर्णित (सा) = वह सेवावृत्ति (श्येनीपती) = [श्यैङ्गती, पा रक्षणे] खूब क्रिया शीलतावाली है तथा सदा रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त रहती है। २. यह सेवावृत्ति (अनामया) = रोगों से शुन्य है। सेवावृत्तिवाला व्यक्ति रोगी नहीं होता। भोगवृत्ति से ऊपर उठने का यह परिणाम स्वाभाविक ही है। ३. यह सेवावृत्ति (उपजिह्विका) = गौण जिहावाली है। सेवावृत्तिवाला व्यक्ति न खाने के चस्केवाला होता है, न बहुत बोलने की वृत्तिवाला। यह कम खाता है और कम बोलता है। इसी से यह सदा स्वस्थ रहता है।
भावार्थ - सेवा की वृत्ति में चार बातें होती हैं [क] क्रियाशीलता [ख] रक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्ति [ग] नीरोगता [४] कम खाना, कम बोलना।
इस भाष्य को एडिट करें