अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 18
अश्व॑स्य॒ वारो॑ गोशपद्य॒के ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑स्य॒ । वार॑: । गोशपद्य॒के ॥१२९.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वस्य वारो गोशपद्यके ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वस्य । वार: । गोशपद्यके ॥१२९.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 18
विषय - सेवावृत्ति व प्रभु का वरण
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार व्रतमय जीवनवाला व्यक्ति कहता है कि (केविका) = [केव to serve] मुझमें सब सेवा की वृत्ति (अजागार) = [जागरिता अभवत्] जागरित हो गई है। मैं अब स्वार्थ से ऊपर उठकर परार्थ में प्रवृत्त हुआ हूँ। २. अब मैं तो (गोशपद्यके) = [गोषु शेते पद्यते] ज्ञान की वाणियों में ही शयन [निवास] व गति के होने पर (अश्वस्य) = [अश् व्याप्ती] उस सर्वव्यापक प्रभु का ही (वार:) = वरण करनेवाला बना हूँ। मेरी इच्छा तो अब एकमात्र यही है कि मैं वेदरुचिवाला व वेदानुसार कार्य करनेवाला बनकर, परार्थ में प्रवृत्त हुआ-हुआ सर्वभूतहिते रत बना हुआ-प्रभु का धारण कर पाऊँ।
भावार्थ - मुझमें सेवा की वृत्ति का जागरण हो। मैं सदा ज्ञान की रुचिवाला व तदनुसार कर्म करता हुआ प्रभु का ही वरण करूँ।
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