अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 4
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
हरि॑क्नि॒के किमि॑च्छसि ॥
स्वर सहित पद पाठहरि॑क्नि॒के । किम् । इ॑च्छसि ॥१२९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
हरिक्निके किमिच्छसि ॥
स्वर रहित पद पाठहरिक्निके । किम् । इच्छसि ॥१२९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 4
विषय - हरिक्निके किमिच्छसि
पदार्थ -
१. (तासाम्) = उन चित्तवृत्तियों में (एका) = एक (हरिक्निका) = [हरय: मनुष्याः नि० १.१५ । कन् दीसौ] मनुष्यों के जीवन को दीप्त बनानेवाली है। २. हे (हरिक्निके) = मानव-जीवन को दीप्त करनेवाली चित्तवृत्ते! तू (किम् इच्छसि) = क्या चाहती है। यहाँ साधक अपने से ही प्रश्न करता है और अगले मन्त्र में उसका उत्तर देता है।
भावार्थ - अन्तर्मुखी चित्तवृत्ति वह है जोकि मानवजीवन को दीप्त बनानेवाली है।
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