अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 10
यो रा॒यो॒ऽवनि॑र्म॒हान्त्सु॑पा॒रः सु॑न्व॒तः सखा॑। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत ॥
स्वर सहित पद पाठय: । रा॒य: । अ॒वनि॑: । म॒हान् । सु॒ऽपा॒र: । सु॒न्व॒त:। सखा॑ ॥ तस्मै॑ । इन्द्रा॑य । गा॒य॒त॒ ॥६८.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
यो रायोऽवनिर्महान्त्सुपारः सुन्वतः सखा। तस्मा इन्द्राय गायत ॥
स्वर रहित पद पाठय: । राय: । अवनि: । महान् । सुऽपार: । सुन्वत:। सखा ॥ तस्मै । इन्द्राय । गायत ॥६८.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 10
विषय - 'सुपार' प्रभु
पदार्थ -
१. (तस्मै इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (गायत) = गुणों का गायन करो, (यः) = जोकि (राय:) = धनों के (अवनिः) = रक्षक व स्वामी हैं। (महान्) = वे प्रभु ही पूजनीय हैं। प्रभु अपने उपासकों को आवश्यक धन प्राप्त कराते ही हैं। २. (सु-पार:) = प्रभु ही हमें सब कार्यों के पार ले-चलनेवाले है-प्रभु-कृपा से ही सब कार्य पूर्ण होते हैं। (सुन्वतः सखा) = वे प्रभु यज्ञशील पुरुष के मित्र है अथवा (सुन्वतः) = सोम का सम्पादन करनेवाले के वे मित्र हैं। प्रभु की प्राप्ति यज्ञशील व सोमरक्षक को ही होती है।
भावार्थ - प्रभु ही धनों के दाता, पूजनीय, कार्यों के साधक व यज्ञशील के मित्र हैं। हम प्रभु का ही गायन करें।
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