अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 9
तं त्वा॒ वाजे॑षु वा॒जिनं॑ वा॒जया॑मः शतक्रतो। धना॑नामिन्द्र सा॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । त्वा॒ । वाजे॑षु । वा॒जिन॑म् । वा॒जया॑म: । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो ॥ धना॑नाम् । इ॒न्द्र॒ । सा॒तये॑ ॥६८.९॥
स्वर रहित मन्त्र
तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो। धनानामिन्द्र सातये ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । त्वा । वाजेषु । वाजिनम् । वाजयाम: । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ॥ धनानाम् । इन्द्र । सातये ॥६८.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 9
विषय - प्रभु-पूजन व संग्राम-विजय
पदार्थ -
१. हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञानों व शक्तियोंवाले प्रभो! (वाजेषु) = काम-क्रोध आदि के साथ होनेवाले संग्रामों में (वाजिनम्) = प्रशस्त शक्ति देनेवाले (तं त्वा) = इन आपको हम (वाजयामः) = अर्चित करते हैं। [वाजयति-अर्चति नि०]। प्रभु की उपासना से-प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर ही हम शत्रुओं को पराभूत कर पाते हैं। २. हे (इन्द्र) = सर्वेश्वयों के स्वामिन् प्रभो! इन शत्रुओं को जीतकर ही हम (धनानां सातये) = धनों की प्राप्ति के लिए होते हैं। आपने ही शत्रुविजय द्वारा हमें 'स्वास्थ्य-नैर्मल्य-बुद्धि की तीव्रता' रूप ऐश्वर्यों को प्राप्त कराना है।
भावार्थ - प्रभु ही हमें अध्यात्म संग्रामों में विजयी बनाते हैं और धन प्राप्त कराते हैं।
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