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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 68

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 5
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६८

    उ॒त ब्रु॑वन्तु नो॒ निदो॒ निर॒न्यत॑श्चिदारत। दधा॑ना॒ इन्द्र॒ इद्दुवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । ब्रु॒व॒न्तु॒ । न॒: । न‍िद॑: । नि: । अ॒न्यत॑: । चि॒त् । आ॒र॒त॒ ॥ दधा॑ना: । इन्द्रे॑ । इत् । दुव॑: ॥६८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत। दधाना इन्द्र इद्दुवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । ब्रुवन्तु । न: । न‍िद: । नि: । अन्यत: । चित् । आरत ॥ दधाना: । इन्द्रे । इत् । दुव: ॥६८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार हम ज्ञानी व संयमी पुरुषों के समीप पहुँचकर ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करें ही, (उत) = और इसके साथ हम (निदः) = निन्दाओं को (नो) = [न+3]-न ही (ब्रुवन्तु) = बोलें हमारे मुख से कभी निन्दात्मक शब्दों का उच्चारण न हो। २. प्रभु कहते हैं कि (अन्यत:) = दूसरे कामों से, अर्थात् अनावश्यक अनुपयोगी कार्यों से (चित्) = निश्चयपूर्वक (नि: आरत) = बाहर गति करनेवाले हों। 'ताश खेलते रहना या गपशप मारते रहना' आदि कर्मों से निश्चयपूर्वक बचो। ३. जब भी कभी अवकाश हो, अर्थात् हम घर के कार्यों को कर चुके हों-स्वाध्याय से श्रान्त हो गये हों तब हम (इत्) = निश्चयपूर्वक (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (दुव:) = परिचर्या को (दधाना:) = धारण करनेवाले हों।

    भावार्थ - हम निन्दा न करें, व्यर्थ के कार्यों से दूर रहने का ध्यान करें। अवकाश के समय में सदा प्रभु के नाम का जप करें, उसी के अर्थ का भावन करें [तज्जपः, तदर्थभावनम्] |

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