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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 68

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 12
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्र छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६८

    पु॑रू॒तमं॑ पुरू॒णामीशा॑नं॒ वार्या॑णाम्। इन्द्रं॒ सोमे॒ सचा॑ सु॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रू॒तम॑म् । पु॒रू॒णाम् । ईशा॑नम् । वार्या॑णाम् । इन्द्र॑म् । सोमे॑ । सचा॑ । सु॒ते ॥६८.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम्। इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरूतमम् । पुरूणाम् । ईशानम् । वार्याणाम् । इन्द्रम् । सोमे । सचा । सुते ॥६८.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार हम मिलकर उस प्रभु का गायन करें, जो (पुरूणां पुरुतमम्) = [पू पालनपूरणयोः] पालकों में सर्वोत्कृष्ट पालक है। अथवा जो हमारे 'पुरून् तमयति ग्लापयति' बहुत भी शत्रुओं को क्षीण बकरनेवाले है। शत्रुओं को क्षीण करके ही तो वे प्रभु सब वरणीय धनों को हमें प्राप्त कराते हैं। वे प्रभु (वार्यणाम) = वरणीय धनों के (ईशानम्)= ईशान है। २. (इन्द्रम) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का (सुते सोमे) = सोम का अभिषव [सम्पादन] करने पर (सचा) = प्रभु से मेल होने पर हम गायन करें। यह सोम हमें उस सोम [प्रभु] से मिलाने का साधन बनता है।

    भावार्थ - प्रभु पालकों में सर्वोत्तम पालक हैं। वे हमारे शत्रुओं को क्षीण करते हैं। वरणीय धनों के वे ईशान हैं। उस प्रभु का स्तवन यही है कि हम सोम के रक्षण से बुद्धि को सूक्ष्म करके प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें। अगला सूक्त भी 'मधुच्छन्दा:' का ही है -

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