Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 68

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 7
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्र छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६८

    एमाशुमा॒शवे॑ भर यज्ञ॒श्रियं॑ नृ॒माद॑नम्। प॑त॒यन्म॑न्द॒यत्स॑खम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ई॒म् । आ॒शुम् । आ॒शवे॑ । भ॒र॒ । य॒ज्ञ॒ऽश्रि॑य॑म् । नृ॒ऽमाद॑नम् ॥ प॒त॒यत् । म॒न्द॒यत्ऽस॑ख्यम् ॥६८.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्। पतयन्मन्दयत्सखम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । ईम् । आशुम् । आशवे । भर । यज्ञऽश्रियम् । नृऽमादनम् ॥ पतयत् । मन्दयत्ऽसख्यम् ॥६८.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    १. (आशवे) = [अशू व्याप्ती] सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में होनेवाले उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (ईम्) = निश्चय से (आशुम्) = सम्पूर्ण रुधिर में व्याप्त होनेवाले इस सोम को (आभर) = सब प्रकार से अपने में धारण करने का प्रयत्न कर। २. उस सोम का तू भरण कर जोकि (यज्ञश्रियम्) = यज्ञमय जीवनवाले पुरुष की श्री का कारण है। (नृमादनम्) = यह उन्नतिशील नरों को आनन्दित करनेवाला है। (पतयत्) = [पतयन्तम्-कर्मणि व्याप्नुवन्तम्-सा०] यह सोम कर्मों में व्याप्त होनेवाला है-यह अपने रक्षक को कर्मशूर बनाता है। (मन्दयत्सखम्) = उस आनन्दित करनेवाले प्रभु में यह सोम सखिभुत है-परमात्म-प्राप्ति का यह प्रमुख साधन बनता है और प्रभु-प्राति द्वारा अद्भुत आनन्द को प्राप्त करानेवाला होता है।

    भावार्थ - प्रभु-प्राति के लिए सोम-रक्षण आवश्यक है। यह हमें यज्ञों में प्रवृत्त कर शोभावाला बनाता है, हमारी उन्नति को सिद्ध करके आनन्दित करता है। यह हमें कर्मशूर बनाता है, आनन्दित करनेवाले प्रभु का सखिभूत है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top