अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 8
अ॒स्य पी॒त्वा श॑तक्रतो घ॒नो वृ॒त्राणा॑मभवः। प्रावो॒ वाजे॑षु वा॒जिन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य॒ । पी॒त्वा । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । घ॒न: । वृ॒त्राणा॑म् । अ॒भ॒व॒: । प्र ॥ आ॒व॒: । वाजे॑षु । वा॒जिन॑म् ॥६८.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभवः। प्रावो वाजेषु वाजिनम् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । पीत्वा । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । घन: । वृत्राणाम् । अभव: । प्र ॥ आव: । वाजेषु । वाजिनम् ॥६८.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 8
विषय - सोम-रक्षण व संग्राम-विजय
पदार्थ -
१. हे (शतक्रतो) = अनन्त कर्मों व प्रज्ञानोंवाले प्रभो! आप (अस्य पीत्वा) = इस सोम की रक्षा करके (वृत्राणाम्)-= ज्ञान पर आवरण के रूप में आ जानेवाली काम आदि वासनओं के (घन:) = मारनेवाले (अभव:) = होते हैं। सोम-रक्षणवाला पुरुष क्रोध आदि का शिकार नहीं होता। २. हे प्रभो! आप (वाजेषु) = इन वासना-संग्रामों में (वाजिनम्) = प्रशस्त अन्नवाले को [बाज-अन्न] (प्राव:) = प्रकर्षण रक्षित करते हैं। जब एक मनुष्य सात्त्विक अन्न का सेवन करता है तब उसकी बुद्धि व मन भी सात्त्विक बनते हैं। सात्विक बुद्धिवाला वासना-संग्राम में अवश्य वियजी बनता है।
भावार्थ - प्रभु-नामस्मरण से हम वासनाओं से ऊपर उठते है--शरीर में सोम का रक्षण कर पाते हैं। प्रभु हमें शक्तिशाली बनाकर संग्नामों में रक्षित करते हैं।
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