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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 68

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 4
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६८

    परे॑हि॒ विग्र॒मस्तृ॑त॒मिन्द्रं॑ पृच्छा विप॒श्चित॑म्। यस्ते॒ सखि॑भ्य॒ आ वर॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । इ॒हि॒ । विग्र॑म् । अस्तृ॑तम् । इन्द्र॑म् । पृ॒च्छ॒ । वि॒प॒:ऽचित॑म् ॥ य: । ते॒ । सखि॑ऽभ्य: । आ । वर॑म् ॥६८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परेहि विग्रमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम्। यस्ते सखिभ्य आ वरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा । इहि । विग्रम् । अस्तृतम् । इन्द्रम् । पृच्छ । विप:ऽचितम् ॥ य: । ते । सखिऽभ्य: । आ । वरम् ॥६८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्रों में वर्णित 'सुमतियों के प्रापण के लिए प्रभु जीव से कहते हैं-(परेहि) = विषयों व सांसारिक कामनाओं से दूर हो। (विनम्) = मेधावी (अस्तृतम्) = काम-क्रोध आदि से अहिंसित पुरुष को प्राप्त हो। इस ज्ञानी व संयमी पुरुष के समीप प्राप्त होकर तू ज्ञान का संग्रह करने में यत्नशील हो। इस (विपश्चितम्) = ज्ञानी पुरुष से (इन्द्रं पृच्छा) = परमात्मा के विषय में पूछनेवाला हो। २. उस विपश्चित् से तू प्रश्न करनेवाला बन, (यः) = जो (ते) = तेरे लिए तथा (सखिभ्यः) = तेरे समान ज्ञान-प्राप्त करने की कामनाबाले मित्रों के लिए उस (वरम्) = श्रेष्ठ वरणीय ज्ञानधन को आ [नयति] प्राप्त कराता हो।

    भावार्थ - हम विषयों से ऊपर उठे और 'विग्र, अस्तृत, विपश्चित्' पुरुषों से आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए यत्नशील हों।

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