अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 69/ मन्त्र 4
त्वं सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ स॒द्यो वृ॒द्धो अ॑जायथाः। इन्द्र॒ ज्यैष्ठ्या॑य सुक्रतो ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । सु॒तस्य॑ । पी॒तये॑ । स॒द्य: । वृ॒द्ध: । अ॒जा॒य॒था॒: ॥ इन्द्र॑ । ज्यैष्ठ्या॑य । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो ॥६९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं सुतस्य पीतये सद्यो वृद्धो अजायथाः। इन्द्र ज्यैष्ठ्याय सुक्रतो ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । सुतस्य । पीतये । सद्य: । वृद्ध: । अजायथा: ॥ इन्द्र । ज्यैष्ठ्याय । सुक्रतो इति सुऽक्रतो ॥६९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 69; मन्त्र » 4
विषय - सोम-रक्षण द्वारा वृद्धि व ज्येष्ठता की प्राप्ति
पदार्थ -
१. हे (सुक्रतो) = उत्तम कर्मसंकल्प व ज्ञानवाले जीव! (त्वम्) = तू (सुतस्य पीतये) = इस उत्पन्न हुए-हुए सोम के पान के लिए हो-सोम का तू शरीर में ही रक्षण करनेवाला बन। इस सोम रक्षण से तू (सद्य:) = शीघ्र (वृद्धः) = बढ़ी हुई शक्तियोंवाला (अजायथा:) = हो जाता है। इससे तेरा शरीर स्वस्थ बनता है, मन (ज्येष्ठयाय) = ज्येष्ठता के लिए होता है। ब्राह्मण बनकर तू ज्ञान से ज्येष्ठ बनता है, क्षत्रिय बनकर बल के दृष्टिकोण से ज्येष्ठ होता है और वैश्य के रूप में बढ़े हुए धन धान्यवाला होता है।
भावार्थ - सोम-रक्षण ही वृद्धि व ज्येष्ठता का मूल है।
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