अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 69/ मन्त्र 8
मा नो॒ मर्ता॑ अ॒भि द्रु॑हन्त॒नूना॑मिन्द्र गिर्वणः। ईशा॑नो यवया व॒धम् ॥
स्वर सहित पद पाठमा । न॒: । मर्ता: । अ॒भि । द्रु॒ह॒न् । त॒नूना॑म् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒ण॒: ॥ ईशा॑न: । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥६९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो मर्ता अभि द्रुहन्तनूनामिन्द्र गिर्वणः। ईशानो यवया वधम् ॥
स्वर रहित पद पाठमा । न: । मर्ता: । अभि । द्रुहन् । तनूनाम् । इन्द्र । गिर्वण: ॥ ईशान: । यवय । वधम् ॥६९.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 69; मन्त्र » 8
विषय - न द्रोह, न वध
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (न: तनूनाम्) = हमारे शरीरों का-हमसे दिये गये इन शरीरों का (मार्ता) = विषयों के पीछे मरनेवाले मनुष्य (मा अभिद्रुहन्) = द्रोह न करें-वे इन शरीरों को मारने की कामनावाले न हों। विषयासक्ति शरीर-ध्वंस का कारण बनती है। २.हे (गिर्वण:) = ज्ञान की वाणियों का संभजन करनेवाले जीव। (ईशान:) = इन्द्रियों का ईश होता हुआ तू (वधम् यवय) = वध को अपने से पृथक् कर। अपने शरीर का वध न होने दे।
भावार्थ - हम विषयासक्ति से ऊपर उठकर शरीरों से द्रोह न करें। जितेन्द्रिय बनकर वध को अपने से दूर रखें।
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