अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 69/ मन्त्र 5
आ त्वा॑ विशन्त्वा॒शवः॒ सोमा॑स इन्द्र गिर्वणः। शं ते॑ सन्तु॒ प्रचे॑तसे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । आ॒शव॑: । सोमा॑स: । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒ण॒: ॥ शम् । ते॒ । स॒न्तु॒ । प्रऽचे॑तसे ॥६९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा विशन्त्वाशवः सोमास इन्द्र गिर्वणः। शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । विशन्तु । आशव: । सोमास: । इन्द्र । गिर्वण: ॥ शम् । ते । सन्तु । प्रऽचेतसे ॥६९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 69; मन्त्र » 5
विषय - क्रियाशीलता-शान्ति-प्रकृष्ट चेतना
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (सोमासः) = ये सोमकण (त्वा आविशन्तु) = तुझमें समन्तात् प्रवेश करें-तेरे शरीर में व्याप्त हो जाएँ। ये सोमकण (आशव:) = तुझे सदा कर्मों में व्याप्त करनेवाले हैं [अश् व्याप्तौ]। सोमकणों के शरीर में व्याप्त होने पर तुझे अकर्मण्यता नहीं घेर सकती। २. हे (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों का सेवन करनेवाले पुरुष ! ये सुरक्षित हुए-हुए सोमकण (ते शं सन्तु) = तुझे शान्ति देनेवाले हों। (प्रचेतसे) = ये तेरी प्रकृष्ट चेतना के लिए हों। इनके रक्षण से तू सदा आत्म स्मरणवाला हो। मैं कौन हूँ। मैं यहाँ क्यों आया हूँ, इन बातों का स्मरण तुझे कभी मार्गभ्रष्ट न होने देगा।
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम हमें क्रियाशील, शान्तस्वभाव व प्रकृष्ट चेतनायुक्त' बनाता है।
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