अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 2
सु॒ष्ठामा॒ रथः॑ सु॒यमा॒ हरी॑ ते मि॒म्यक्ष॒ वज्रो॒ नृप॑ते॒ गभ॑स्तौ। शीभं॑ राजन्सु॒पथा या॑ह्य॒र्वाङ्वर्धा॑म ते प॒पुषो॒ वृष्ण्या॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽस्थामा॑ । रथ॑: । सु॒ऽयमा॑ । हरी॒ इति॑ । ते॒ । मि॒म्यक्ष॑ । वज्र॑: । नृ॒ऽप॒ते॒ । गभ॑स्तौ ॥ शीभ॑म् । रा॒ज॒न् । सु॒ऽपथा॑ । आ । या॒हि॒ । अ॒वाङ् । वर्धा॑म । ते॒ । प॒पुष॑: । वृष्ण्या॑नि ॥९४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सुष्ठामा रथः सुयमा हरी ते मिम्यक्ष वज्रो नृपते गभस्तौ। शीभं राजन्सुपथा याह्यर्वाङ्वर्धाम ते पपुषो वृष्ण्यानि ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽस्थामा । रथ: । सुऽयमा । हरी इति । ते । मिम्यक्ष । वज्र: । नृऽपते । गभस्तौ ॥ शीभम् । राजन् । सुऽपथा । आ । याहि । अवाङ् । वर्धाम । ते । पपुष: । वृष्ण्यानि ॥९४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 2
विषय - सष्ठामा रथः
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के स्वपति से कहते हैं कि (रथ:) = तेरा शरीररूप रथ (सष्ठामा) = शोभनावस्थान हो इसका एक-एक अंग सुबद्ध हो, अर्थात् यह शरीररूप रथ सुगठित हो। (ते) = तेरे (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व (सुयमा) = सम्यक् वश में हों। हे (नृपते) = आगे बढ़नेवालों के स्वामिन् मुखिया (ते गभस्तौ) = तेरे बाहुओं में (वज्रः) = क्रियाशीलतारूप वज्र (मिम्यक्ष) = संगत हो, अर्थात् तु सतत क्रियाशील जीवनवाला हो। २. हे (राजन्) = अपने जीवन को व्यवस्थित [regulated] करनेवाले और इसप्रकार अपने जीवन को दीप्स बनानेवाले जीव! तू सुपथा उत्तम मार्ग से (शीभम्) = शीघ्र (अर्वाड) = हमारे अभिमुख-हमारे अन्दर (आयाहि) = प्राप्त हो, बहिर्मुखी वृत्ति को छोड़कर अन्तर्मुखी वृत्तिवाला बन। जीवन को व्यवस्थित बनाना ही प्रभु की ओर चलना है। ३. प्रभु कहते हैं कि ऐसा होने पर (पपुष:) = सोमपान करनेवाले (ते) = तेरे (वृष्णयानि) = बलों को (वर्धाम) = हम बढ़ाते हैं। सोमपान से ही शक्ति का वर्धन होता है। सशक्त होकर ही हम प्रभु-दर्शन के योग्य बनते हैं।
भावार्थ - हमारा शरीररूप रथ सुदृढ़ हो। इन्द्रियाश्व संयत हों। हाथों में क्रियाशीलता हो। सुपथ से प्रभु की ओर चलें और सोम-रक्षण द्वारा शक्तिशाली बनें।
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