अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 9
इ॒मं बि॑भर्मि॒ सुकृ॑तं ते अङ्कु॒शं येना॑रु॒जासि॑ मघवञ्छफा॒रुजः॑। अ॒स्मिन्त्सु ते॒ सव॑ने अस्त्वो॒क्यं सु॒त इ॒ष्टौ म॑घवन्बो॒ध्याभ॑गः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । बि॒भ॒र्मि॒ । सुऽकृ॑तम् । ते॒ । अ॒ङ्कु॒शम् । येन॑ । आ॒ऽरु॒जासि॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । श॒फ॒ऽआ॒रुज॑: ॥ अ॒स्मिन् । सु । ते । सव॑ने । अ॒स्तु॒ । ओ॒क्य॑म् । सु॒ते । इ॒ष्टौ । म॒घ॒ऽव॒न् । बो॒धि॒ । आऽभ॑ग:॥९४.९॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं बिभर्मि सुकृतं ते अङ्कुशं येनारुजासि मघवञ्छफारुजः। अस्मिन्त्सु ते सवने अस्त्वोक्यं सुत इष्टौ मघवन्बोध्याभगः ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । बिभर्मि । सुऽकृतम् । ते । अङ्कुशम् । येन । आऽरुजासि । मघऽवन् । शफऽआरुज: ॥ अस्मिन् । सु । ते । सवने । अस्तु । ओक्यम् । सुते । इष्टौ । मघऽवन् । बोधि । आऽभग:॥९४.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 9
विषय - प्रभु-स्तवनरूप अंकुश
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (इमम्) = इस (ते) = आपके (सुक्तम्) = पुण्य के कारणभूत (अंकुशम्) = स्तवन को (बिभर्मि) = मैं धारण करता है। यहाँ स्तुति को अंकुश इसलिए कहा है कि यह हमें मार्ग पर चलने के लिए प्रेरक होती है। अंकुशहाथी को मार्गभ्रष्ट नहीं होने देता-इसी प्रकार स्तुति मनुष्य को मार्गभ्रष्ट होने से बचाती है। हे (मघवन्) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामिन् प्रभो! यह स्तुतिरूप अंकुश वह है, (येन) = जिससे (शफारुजः) = [शफ root of a tree] शरीररूप वृक्ष के मूल पर आघात करनेवाले 'काम, क्रोध, लोभ' को आप (आरुजासि) = छिन्न-भिन्न कर देते हो। 'काम' शरीर को, 'क्रोध' मन को तथा लोभ' बुद्धि को नष्ट कर देता है। इन तीनों शफारुजों को प्रभु का स्तवन नष्ट कर देता है। २. इनको नष्ट करके हम चाहते हैं कि (अस्मिन् सवने सुते) = इस जीवन-यज्ञ में सोम का सम्पादन होने पर (ओक्यम् अस्तु) = प्रभु का यहाँ निवास हो। हे (आभग:) = आभजनीय सर्वदा स्तवन के योग्य प्रभो! (इष्टौ सुते) = इस जीवन को यज्ञरूप में चलाने पर (बोधि) = आप हमारा ध्यान कीजिए। आपसे रक्षित होकर हम इस जीवन को यज्ञ का रूप दे सकेंगे।
भावार्थ - प्रभु का स्तवन हमारे जीवनरूप हाथी के लिए अंकुश के समान हो। हम जीवन को यज्ञमय बनाएँ। इस जीवन-यज्ञ में प्रभु का निवास हो।
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