अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 8
गि॒रीँरज्रा॒न्रेज॑मानाँ अधारय॒द्द्यौः क्र॑न्दद॒न्तरि॑क्षाणि कोपयत्। स॑मीची॒ने धि॒षणे॒ वि ष्क॑भायति॒ वृष्णः॑ पी॒त्वा मद॑ उ॒क्थानि॑ शंसति ॥
स्वर सहित पद पाठगि॒रीन् । अज्रा॑न् । रेज॑मानान् । अ॒धा॒र॒य॒त् । द्यौ: । क्र॒न्द॒न् । अ॒न्तरि॑क्षाणि । को॒प॒य॒त् ॥ स॒मी॒ची॒ने इति॑ स॒म् ई॒ची॒ने । धि॒षणे॒ इति॑ । वि । स्क॒भा॒य॒ति॒ । वृष्ण॑: । पी॒त्वा । मद॑ । उ॒क्थानि॑ । शं॒स॒ति॒ ॥९४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
गिरीँरज्रान्रेजमानाँ अधारयद्द्यौः क्रन्ददन्तरिक्षाणि कोपयत्। समीचीने धिषणे वि ष्कभायति वृष्णः पीत्वा मद उक्थानि शंसति ॥
स्वर रहित पद पाठगिरीन् । अज्रान् । रेजमानान् । अधारयत् । द्यौ: । क्रन्दन् । अन्तरिक्षाणि । कोपयत् ॥ समीचीने इति सम् ईचीने । धिषणे इति । वि । स्कभायति । वृष्ण: । पीत्वा । मद । उक्थानि । शंसति ॥९४.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 8
विषय - समीचीने धिषणे
पदार्थ -
१. (वृष्ण:) = शक्ति देनेवाले सोम का (पीत्वा) = पान करके-सोम को शरीर में ही व्याप्त करके मनुष्य (मदे) = उल्लास में (उक्थानि) = प्रभु के स्तोत्रों का (शंसति) = उच्चारण करता है। जिस समय मन्त्र का ऋषि 'गोतम' [प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष] सोम का विनाश न करके उसे शरीर में ही सुरक्षित करता है, उस समय नीरोगता व निर्मलता के कारण उसे एक अनुपम उल्लास का अनुभव होता है। उस उल्लास में वह प्रभु की महिमा का गायन करता है। २. इस सोम के रक्षण के द्वारा वह (समीचीने) = [सम् अञ्च] उत्तम गतिवाले (धिषणे) = द्यावापृथिवी को-मस्तिष्क व शरीर को (विष्कभायति) = विशेषरूप से थामता है। इनकी शक्ति को यह बढ़ानेवाला होता है। सोम-रक्षण ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है और शरीर में आ जानेवाले रोगकृमियों का नाश करता है। यह "मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाना, व शरीर को नीरोग बनाना' ही द्यावापृथिवी का धारण है। यही द्यावापृथिवी की समीचीनता है। अपने-अपने कार्य को ठीक से करना ही तो समीचीनता है। ३. यह (अज्रान्) = अपनी गति के द्वारा विक्षिप्त करनेवाले (रेजमानान्) = अत्यन्त कम्पित करते हुए (गिरीन्) = अविद्यापर्वतों को (अधारयत्) = थामता है, अर्थात् इन पर्वतों के आक्रमण से अपने को बचाता है। इसका (द्यौ:) = मस्तिष्करूप द्युलोक (अक्रन्दत्) = प्रभु का आह्वान करनेवाला होता है, अर्थात् यह अपने ज्ञान के प्रकाश से प्रभु को देखता है और उसे अपने रक्षण के लिए पुकारता है। यह (अन्तरिक्षाणि) = अपने हृदयान्तरिक्षों को (कोपयत्) = [कोपयति to shine]-दीप्त करता है। प्रभु के प्रकाश से हृदय का दीस होना स्वाभाविक है।
भावार्थ - सोम के रक्षण के द्वारा हमारे मस्तिष्क व शरीर उत्तम हों।
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