अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 4
ए॒वा पतिं॑ द्रोण॒साचं॒ सचे॑तसमू॒र्ज स्क॒म्भं ध॒रुण॒ आ वृ॑षायसे। ओजः॑ कृष्व॒ सं गृ॑भाय॒ त्वे अप्यसो॒ यथा॑ केनि॒पाना॑मि॒नो वृ॒धे ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । पति॑म् । द्रो॒ण॒ऽसाच॑म् । सऽचे॑तसम् । ऊ॒र्ज: । स्क॒म्भम् । ध॒रुणे॑ । आ । वृ॒ष॒ऽय॒से॒ ॥ ओज॑: । कृ॒ष्व॒ । सम् । गृ॒भा॒य॒ । त्वे इति॑ । अपि॑ । अस॑: । यथा॑ । के॒ऽनि॒पाना॑म् । इ॒न: । वृ॒धे ॥९४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा पतिं द्रोणसाचं सचेतसमूर्ज स्कम्भं धरुण आ वृषायसे। ओजः कृष्व सं गृभाय त्वे अप्यसो यथा केनिपानामिनो वृधे ॥
स्वर रहित पद पाठएव । पतिम् । द्रोणऽसाचम् । सऽचेतसम् । ऊर्ज: । स्कम्भम् । धरुणे । आ । वृषऽयसे ॥ ओज: । कृष्व । सम् । गृभाय । त्वे इति । अपि । अस: । यथा । केऽनिपानाम् । इन: । वृधे ॥९४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 4
विषय - सुरक्षित सोम का महत्त्व
पदार्थ -
१. हे (धरुण) = हमारा धारण करनेवाले प्रभो! (एवा) = [इ गतौ] गतिशीलता के द्वारा आप (आवृषायसे) = हममें उस सोम का वर्षण व सेचन करते हैं जोकि (पतिम्) = पालक है-रोगों से हमें बचानेवाला है। (द्रोणसाचम्) = इस शरीररूप द्रोण [सोमपात्र] में समवेत [सम्बद्ध] होनेवाला है। (सचेतसम्) = जो चेतना से युक्त है-चेतना व ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला है और (ऊर्ज: स्कम्भम्) = बल व प्राणशक्ति का धारक है। २. हे प्रभो! इस सोम के सेचन से (ओजः कृष्व) = आप हममें ओजस्विता का सम्पादन कीजिए और (त्वे अपि संगृभाय) = हमें अपने में ग्रहण करने की कृपा कीजिए। हम आपकी गोद में इसी प्रकार आ सकें, जैसकि पुत्र पिता की गोद में आता है। ३. आप हमारे लिए उसी प्रकार होइए (यथा) = जैसेकि (इनः) = स्वामी होते हुए आप (केनिपानाम्) = मेधावियों के (वृधे) = वर्धन के लिए होते हैं। हम भी इस सोम के रक्षण के द्वारा मेधावी हों और आपके प्रिय होकर निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करें।
भावार्थ - सोम [वीर्य] रोगों से हमारा रक्षण करता है, हमें चेतना-सम्पन्न व शक्तिशाली बनाता है। इसके द्वारा हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनते हैं। मेधावी बनकर वृद्धि को प्राप्त करते हैं।
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