अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 6
पृथ॒क्प्राय॑न्प्रथ॒मा दे॒वहू॑त॒योऽकृ॑ण्वत श्रव॒स्यानि दु॒ष्टरा॑। न ये शे॒कुर्य॒ज्ञियां॒ नाव॑मा॒रुह॑मी॒र्मैव ते न्य॑विशन्त॒ केप॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठपृथ॑क् । प्र । आ॒य॒न् । प्र॒थ॒मा: । दे॒वऽहू॑तय: । अकृ॑ण्वत । श्र॒व॒स्या॑नि । दु॒स्तरा॑ ॥ न । ये । शे॒कु: । य॒ज्ञिया॑म् । नाव॑म् । आ॒ऽरुह॑म् । ई॒र्मा । ए॒व । ते । नि । अ॒वि॒श॒न्त॒ । केप॑य: ॥९४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथक्प्रायन्प्रथमा देवहूतयोऽकृण्वत श्रवस्यानि दुष्टरा। न ये शेकुर्यज्ञियां नावमारुहमीर्मैव ते न्यविशन्त केपयः ॥
स्वर रहित पद पाठपृथक् । प्र । आयन् । प्रथमा: । देवऽहूतय: । अकृण्वत । श्रवस्यानि । दुस्तरा ॥ न । ये । शेकु: । यज्ञियाम् । नावम् । आऽरुहम् । ईर्मा । एव । ते । नि । अविशन्त । केपय: ॥९४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 6
विषय - यज्ञिय भाव
पदार्थ -
१. (प्रथमा:) = [प्रथ विस्तारे] अपना विस्तार करनेवाले व अपने हृदयों को विशाल बनानेवाले (देवहूतयः) = देव को पुकारनेवाले-प्रभु की प्रार्थना करनेवाले-अपने में दिव्यगुणों की स्थापना के लिए यत्नशील सोमी पुरुष (पृथक्) = अनासक्त [Detached] होकर-अलग रहते हुए-न फैंसते हुए-(प्रायन्) = प्रकृष्ट गतिवाले होते हैं। सब सांसारिक कार्यों को करते हुए ये उनमें आसक्त नहीं होते। २. अनासक्तभाव से कार्यों को करते हुए ये सोमी पुरुष (श्रवस्यानि) = उन श्रवणीय यशों को (अकृण्वत) = करनेवाले होते हैं, जो यश (दुष्टरा) = दूसरों से दुस्तर होते हैं। इनके यश का अन्य लोग उल्लंघन नहीं कर पाते। ३. इनके विपरीत वे व्यक्ति (ये) = जोकि (यज्ञियांनावम) = यज्ञमयी नाव पर (आरुहम्) = आरोहण के लिए (न शेकु:) = समर्थ नहीं होते, अर्थात् जो जीवन को, आसक्ति से ऊपर उठकर, यज्ञिय कार्यों में नहीं लगा पाते, (ते) = वे (केपयः) = कुत्सितकर्मा लोग (ईर्म एव) = [ऋणेनैव] अपने पर चढ़े हुए 'मानव ऋण' से ही (न्यविशन्त) = नीचे और नीचे प्रवेश करते हैं। इनको अधोगति प्राप्त होती है। मनुष्य पर चार ऋण होते हैं-'पितृऋण, ऋषिऋण, देवऋण व मानव ऋण'। इन ऋणों को हम विविध यज्ञिय कर्मों द्वारा उतारा करते हैं। यदि उन यज्ञों को हम नहीं करते तो ऋणभार से दबे हुए हम अधोगति को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - हम संसार में फल की आसक्ति को छोड़कर कर्तव्यकर्मों को करें । यही 'यज्ञिय नाव' है। यही हमें भवसागर से तराएगी और अधोगति से बचाएगी।
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