अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 7
ए॒वैवापा॒गप॑रे सन्तु दू॒ढ्योश्वा॒ येषां॑ दु॒र्युज॑ आयुयु॒ज्रे। इ॒त्था ये प्रागुप॑रे सन्ति दा॒वने॑ पु॒रूणि॒ यत्र॑ व॒युना॑नि॒ भोज॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । ए॒व । अपा॑क् । अप॑रे । स॒न्तु॒ । दु॒:ऽध्य॑: । अश्वा॑: । येषा॑म् । दु॒:ऽयुज॑: । आ॒ऽयु॒यु॒जे ॥ इ॒त्था । ये । प्राक् । उप॑रे । सन्ति॑ । दा॒वने॑ । पु॒रूणि॑ । यत्र॑ । व॒युना॑नि । भोज॑ना ॥९४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
एवैवापागपरे सन्तु दूढ्योश्वा येषां दुर्युज आयुयुज्रे। इत्था ये प्रागुपरे सन्ति दावने पुरूणि यत्र वयुनानि भोजना ॥
स्वर रहित पद पाठएव । एव । अपाक् । अपरे । सन्तु । दु:ऽध्य: । अश्वा: । येषाम् । दु:ऽयुज: । आऽयुयुजे ॥ इत्था । ये । प्राक् । उपरे । सन्ति । दावने । पुरूणि । यत्र । वयुनानि । भोजना ॥९४.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 7
विषय - प्राग, नकि अपाग्
पदार्थ -
१. (येषाम्) = जिन यज्ञ न करनेवालों के (दुर्युज) = दुए योजनावाले, अर्थात् अशुभ मार्ग की ओर जानेवाले (अश्वा:) = इन्द्रियरूप अश्व (आयुयुज्रे) = इस शरीर-रथ में जुतते हैं, वे (दूत्य) = [दुर्धियः] दुष्ट बुद्धिवाले (अपरे) = इस अपरा प्रकृति में फंसे हुए पुरुष (एवा एव) = अपनी गतियों के कारण ही (अपाग् सन्तु) = अधोगतिवाले हों। भोगप्रवण मनोवृत्तिवाले पुरुषों की बुद्धियाँ सदा कुमन्त्रणा करती हैं। इनकी अन्ततः अवनति ही होती है। २. (उ) = और (ये) = जो (परे) = दुसरे पराप्रकृति [जीव आत्मस्वरूप] की और चलनेवाले होते हैं और (इत्था) = सचमुच (दावने सन्ति) = देने के कार्य में लोग रहते हैं, वे (प्राग् सन्ति) = आगे बढ़नेवाले होते हैं। (वे) = वहाँ पहुँचते हैं (यत्र) = जहाँ कि (पुरूणि) = पालन व पूरण करनेवाले पर्याप्त (वयुनानि) = ज्ञानयुक्त व कान्त [चमकते हुए] (भोजना) = धन हैं। भोगवृत्ति से ऊपर उठे हुए इन यज्ञशील पुरुषों को पालन के लिए आवश्यक सब धन प्राप्त होते हैं। ये धन उन्हें मूढ बनानेवाले नहीं होते। ये उन्हें आगे बढ़ाते हुए उनकी ज्ञानवृद्धि का साधन बनते हैं।
भावार्थ - भोगप्रवण बनकर हम अधोगति को प्राप्त करनेवाले न बनें। यज्ञों में प्रवृत्त हुए हुए हम आगे बढ़ें और ज्ञानयुक्त धनोंवाले हों।
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