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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 10
    सूक्त - अथर्वा देवता - धाता, विधाता, ऋतवः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त

    ऋ॒तुभ्य॑ष्ट्वार्त॒वेभ्यो॑ मा॒द्भ्यः सं॑वत्स॒रेभ्यः॑। धा॒त्रे वि॑धा॒त्रे स॒मृधे॑ भू॒तस्य॒ पत॑ये यजे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तुऽभ्य॑: । त्वा । आ॒र्त॒वेभ्य॑: । मा॒त्ऽभ्य॑: । स॒म्ऽव॒त्स॒रेभ्य॑: । धा॒त्रे । वि॒ऽधा॒त्रे । स॒म्ऽऋधे॑ । भू॒तस्य॑ । पत॑ये । य॒जे॒ ॥१०.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतुभ्यष्ट्वार्तवेभ्यो माद्भ्यः संवत्सरेभ्यः। धात्रे विधात्रे समृधे भूतस्य पतये यजे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतुऽभ्य: । त्वा । आर्तवेभ्य: । मात्ऽभ्य: । सम्ऽवत्सरेभ्य: । धात्रे । विऽधात्रे । सम्ऽऋधे । भूतस्य । पतये । यजे ॥१०.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १. हे उषे! (ऋतुभ्य:) = ऋतुओं के लिए (त्वा यजे) = मैं तेरा यजन करता हूँ। प्रत्येक उषा में यज्ञ करता हुआ मैं ऋतुओं को अनुकूल बनाता हूँ। (आर्तवेभ्य:) = ऋतुओं में होनेवाले पदार्थों के लिए (माद्भ्यः) = मासों के लिए, (संवत्सरेभ्यः) = वर्षों के लिए मैं यज्ञ करता हूँ। इन सबकी अनुकूलता के लिए मैं यज्ञ करता हूँ। २. (धात्रे) = धारण करनेवाले प्रभु के लिए (विधात्रे) = सम्पूर्ण संसार के निर्माता प्रभु के लिए तथा (समृधे) = समृद्धि प्राप्त करानेवाले (भूतस्य पतये) = सब प्राणियों के रक्षक प्रभु के लिए मैं यज्ञ करता हूँ।

    भावार्थ -

    यज्ञों के द्वारा ऋतुओं को अनुकूलता होती है और प्रभु का उपासन होता है।

     

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