अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 13
सूक्त - अथर्वा
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
इन्द्र॑पुत्रे॒ सोम॑पुत्रे दुहि॒तासि॑ प्र॒जाप॑तेः। कामा॑न॒स्माकं॑ पूरय॒ प्रति॑ गृह्णाहि नो ह॒विः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ऽपुत्रे । सोम॑ऽपुत्रे । दु॒हि॒ता । अ॒सि॒ । प्र॒जाऽप॑ते: । कामा॑न् । अ॒स्माक॑म् । पू॒र॒य॒ । प्रति॑ । गृ॒ह्णा॒हि॒ । न॒: । ह॒वि: ॥१०.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रपुत्रे सोमपुत्रे दुहितासि प्रजापतेः। कामानस्माकं पूरय प्रति गृह्णाहि नो हविः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रऽपुत्रे । सोमऽपुत्रे । दुहिता । असि । प्रजाऽपते: । कामान् । अस्माकम् । पूरय । प्रति । गृह्णाहि । न: । हवि: ॥१०.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 13
विषय - 'इन्द्र-पुत्रा-प्रजापति-पुत्री' उषा
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में कहा है कि उषा स्वाध्यायरूप तप से दीप्त होकर प्रभु के प्रकाश को प्राप्त कराती है। इसप्रकार प्रभु को प्रकट करने के कारण यह 'इन्द्र-पुत्रा' कहलायी है-इन्द्ररूप पुत्रवाली तथा प्रभु इस उषा को उत्पन्न करते हैं, अत: यह उस प्रभु की दुहिता [पुत्री] है। हे (इन्द्रपुत्रे) = परमैश्वर्यशाली प्रभुरूप पुत्रवाली, अर्थात् प्रभु का हमारे हृदयों में प्रकाश करनेवाली उषे! हे (सोमपुत्रे) = शरीर में सोम को पवित्र व रक्षित [पुनाति+त्रायते] करनेवाली उषे! तू (प्रजापते:) = सब प्रजाओं के स्वामी प्रभु को (दुहिता असि) = पुत्री है। २. तू (अस्माकं कामान् पूरय) = हमारी कामनाओं को पूर्ण करनेवाली हो। तू (नः हविः) = हमारे द्वारा दी जानेवाली इस हवि को (प्रतिगृह्णाहि) = प्रति दिन गृहण कर, अर्थात् हम सदा उषाकाल में प्रबुद्ध होकर यज्ञशील बनें। यज्ञों के द्वारा ही तो प्रभु का पूजन होता है।
भावार्थ -
उषा प्रभु का प्रकाश दिखाती है, हमारी कामनाओं को पूर्ण करती है। हम सदा उषा में प्रबुद्ध होकर यज्ञों को करें।
विशेष -
प्रतिदिन यज्ञ करने से दीर्घजीवन प्राप्त होता है। यह विषय अगले सूक्त में प्रतिपादित हुआ है। यह यज्ञशील पुरुष महत्त्व को प्राप्त करके 'ब्रह्मा' बनता है। तपस्या इसे 'भृगु' बनाती है। अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला यह 'अङ्गिरा' होता है। यह कहता है -