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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - रात्रिः, धेनुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त

    यां दे॒वाः प्र॑ति॒नन्द॑न्ति॒ रात्रिं॑ धे॒नुमु॑पाय॒तीम्। सं॑वत्स॒रस्य॒ या पत्नी॒ सा नो॑ अस्तु सुमङ्ग॒ली ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । दे॒वा: । प्र॒ति॒ऽनन्द॑न्ति । रात्रि॑म् । धे॒नुम् । उ॒प॒ऽआ॒य॒तीम् । स॒म्ऽव॒त्स॒रस्य॑ । या । पत्नी॑ । सा । न॒: । अ॒स्तु॒ । सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली ॥१०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां देवाः प्रतिनन्दन्ति रात्रिं धेनुमुपायतीम्। संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमङ्गली ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । देवा: । प्रतिऽनन्दन्ति । रात्रिम् । धेनुम् । उपऽआयतीम् । सम्ऽवत्सरस्य । या । पत्नी । सा । न: । अस्तु । सुऽमङ्गली ॥१०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (देवा:) = देववृत्ति के लोग (उपायतीम) = समीप आती हुई (यां रात्रिं धेनुम्) = जिस रात्रिरूप धेनु का (प्रतिनन्दन्ति) = स्वागत करते हैं, (सा) = वह रात्रि (नः) = हमारे लिए (सुमङ्गली) = उत्तम मङ्गल करनेवाली हो। रात्रि धेनु है। धेनु दुग्ध देती है, दुग्ध द्वारा हमारा वर्धन करती है। इसीप्रकार रात्रि भी हमारा आप्यायन करती है-हमें पुन: स्फूर्तिमय बना देती है, इसी से यह धेनु कहाती है। रात्रि में ओषधियों में रस का सञ्चार होता है। यह रात्रि रमयित्री है, परन्तु राक्षसी वृत्तिवालों के लिए यह अमङ्गलों व पापों का आधार बन जाती है। २. (या) = जो रात्रि (संवत्सरस्य) = संवत्सर की (पत्नी) = पत्नी है-('संवसन्ति अस्मिन् इति संवत्सरः') = उत्तम निवासवाले वर्ष की यह रात्रि पत्नी है। रात्रि संवत्सर को संवत्सर बनाती है। रात्रि प्रतिदिन हममें शक्ति का सञ्चार करती हुई हमारे जीवन के वर्षों को उत्तम बनाती है। यह रात्रि हमारे लिए सुमङ्गली हो।

     

    भावार्थ -

    रात्रि धेन है। यह हमारी शक्तियों का फिर से आप्यायन करती है। यह संवत्सर की पत्नी है-हमारे निवास को प्रतिदिन उत्तम बनाती हुई हमारे जीवन के वर्षों को सचमुच 'संवत्सर' बनाती है।

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