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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वा देवता - सवंत्सरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त

    आयम॑गन्त्संवत्स॒रः पति॑रेकाष्टके॒ तव॑। सा न॒ आयु॑ष्मतीं प्र॒जां रा॒यस्पोषे॑ण॒ सं सृ॑ज ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒यम् । अ॒ग॒न् । स॒म्ऽव॒त्स॒र: । पति॑: । ए॒क॒ऽअ॒ष्ट॒के॒ । तव॑ । सा । न॑: । आयु॑ष्मतीम् । प्र॒ऽजाम् । रा॒य: । पोषे॑ण । सम् । सृ॒ज॒ ॥१०.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयमगन्त्संवत्सरः पतिरेकाष्टके तव। सा न आयुष्मतीं प्रजां रायस्पोषेण सं सृज ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अयम् । अगन् । सम्ऽवत्सर: । पति: । एकऽअष्टके । तव । सा । न: । आयुष्मतीम् । प्रऽजाम् । राय: । पोषेण । सम् । सृज ॥१०.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. प्रत्येक वर्ष के आरम्भ में सोकर उठने पर हमें यह धारणा करनी चाहिए कि (अयम्) = यह (संवत्सर:) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाला वर्ष (आ अगन्) = आया है-आज नववर्ष का आरम्भ होता है। हे (एकाष्टके) = दिन के प्रथम व मुख्य अष्टकवाली उधे! यह (तव पति:) = तेरा पति है-तु इसकी पत्नी है। तू ही वस्तुतः इसे संवत्सर-उत्तम निवासवाला बनाती है। २. (सा) = वह तू (न:) = हमारी (आयुष्मती प्रजाम्) = दीर्घजीवी सन्तानों को (रायस्पोषेण संसृजन) = धन के पोषण से युक्त कर । प्रतिदिन प्रात:काल प्रबुद्ध होती हुई हमारी सन्तानें दीर्घजीवी व धन-धान्य सम्पन्न बनें।

    भावार्थ -

    वर्ष के प्रारम्भिक दिन हम उषा-जागरण का व्रत लें तथा निश्चय करें कि अपने जीवन को उत्तम बनाकर हम सन्तानों को दीर्घजीवी व सम्पन्न बनाने के लिए यत्नशील होंगे।

     

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