अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - रात्रिः, धेनुः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
इ॒यमे॒व सा या प्र॑थ॒मा व्यौच्छ॑दा॒स्वित॑रासु चरति॒ प्रवि॑ष्टा। म॒हान्तो॑ अस्यां महि॒मानो॑ अ॒न्तर्व॒धूर्जि॑गाय नव॒गज्जनि॑त्री ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । ए॒व । सा । या । प्र॒थ॒मा । वि॒ऽऔच्छ॑त् । आ॒सु । इत॑रासु । च॒र॒ति॒ । प्रऽवि॑ष्टा । म॒हान्त॑: । अ॒स्या॒म् । म॒हि॒मान॑: । अ॒न्त: । व॒धू: । जि॒गा॒य॒ । न॒व॒ऽगत् । जनि॑त्री ॥१०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छदास्वितरासु चरति प्रविष्टा। महान्तो अस्यां महिमानो अन्तर्वधूर्जिगाय नवगज्जनित्री ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । एव । सा । या । प्रथमा । विऽऔच्छत् । आसु । इतरासु । चरति । प्रऽविष्टा । महान्त: । अस्याम् । महिमान: । अन्त: । वधू: । जिगाय । नवऽगत् । जनित्री ॥१०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
विषय - 'महान् महिमावाला' उषाकाल
पदार्थ -
१. (इयं एव सा) = यही वह उषा है (या) = जोकि (प्रथमा) = दिन में सर्वप्रथम अष्टकवाली (वि औच्छत्) = विशेषरूप से अन्धकार को दूर करती है। (आसु इतरासु) = दिन के अन्य भागों में (प्रविष्टा) = प्रविष्ट हुई-हुई (चरति) = विचरण करती है। उषा ही मानो बड़ी होती हुई दिन के प्रातः, संगव, मध्याह, अपराह व सायाह आदि पाँच भागों में तथा इनके अन्तरालवी चार कालों [आत, रुग्ण, सन्तप, खनि] में गति करती है। (अस्या अन्त:) = इस उषाकाल में (महान्तः महिमान:) = महान् महिमाएँ है, अर्थात् यह समय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस समय वायुमण्डल में भी ओजोन गैस की अधिकता होने से स्वास्थ्य पर सुन्दर प्रभाव पड़ता है। शान्ति का समय होने से मन के लिए यह उत्तम होता है। सामान्यतया चित्त की एकाग्रता के लिए यह समय उपयुक्ततम होता है, एवं स्वाध्याय के लिए यह समय अमूल्य है। यह (वधूः) = सूर्य की पत्नीरूप उषा (जिगाय) = विजयी होती है-सर्वोत्कृष्ट प्रतीत होती है। (नवगत्) = दिन के नौ-के-नौ भागों में गतिवाली होती है व स्तुत्य गतिवाली होती है, (जनित्री) = यह हमारी शक्तियों की जनयित्री विकास करनेवाली है।
भावार्थ -
उषा अन्धकार को दूर करती हुई आती है और दिन के अगले भाग में गति करती हुई विजयी होती है। समय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है-यह हमारे जीवन को महिमान्वित करता है। इस समय सोये रह जाना बड़ी भारी मूर्खता है।
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