अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 12
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः, देवगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
ए॑काष्ट॒का तप॑सा त॒प्यमा॑ना ज॒जान॒ गर्भं॑ महि॒मान॒मिन्द्र॑म्। तेन॑ दे॒वा व्य॑षहन्त॒ शत्रू॑न्ह॒न्ता दस्यू॑नामभव॒च्छची॒पतिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒क॒ऽअ॒ष्ट॒का । तप॑सा । त॒प्यमा॑ना । ज॒जान॑ । गर्भ॑म् । म॒हि॒मान॑म् । इन्द्र॑म् । तेन॑ । दे॒वा: । वि । अ॒स॒ह॒न्त॒ । शत्रू॑न् । ह॒न्ता । दस्यू॑नाम् । अ॒भ॒व॒त् । शची॒ऽपति॑: ॥१०.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
एकाष्टका तपसा तप्यमाना जजान गर्भं महिमानमिन्द्रम्। तेन देवा व्यषहन्त शत्रून्हन्ता दस्यूनामभवच्छचीपतिः ॥
स्वर रहित पद पाठएकऽअष्टका । तपसा । तप्यमाना । जजान । गर्भम् । महिमानम् । इन्द्रम् । तेन । देवा: । वि । असहन्त । शत्रून् । हन्ता । दस्यूनाम् । अभवत् । शचीऽपति: ॥१०.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 12
विषय - उषाकाल में प्रभु-दर्शन
पदार्थ -
१. (एकाष्टका) = यह प्रथम व मुख्य अष्टक-[दिन के प्रथमभाग]-वाली उषा (तपसा तप्यमाना) = तप से दीप्त होती हुई उस (गर्भम्) = सब पदार्थों में गर्भरूप से रहनेवाले व सब पदार्थों को अपने गर्भ में धारण करनेवाले, (महिमानम्) = अतिशयेन पूज्य (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (जजान) = प्रकट करती है। उषाकाल में प्रबुद्ध होकर हम तपस्यामय जीवन बनाते हैं। स्वाध्याय ही सर्वमहान् तप है। इस तप से जीवन दीप्त बन जाता है। उस समय तपःपूत पवित्र हृदय में प्रभु का प्रकाश होता है। २. (देवाः) = देववृत्ति के ये पुरुष (तेन) = उस प्रभु के द्वारा (शत्रून व्यसहन्त) = काम-क्रोध-लोभरूप शत्रुओं को पराभूत करते हैं। वह (शचीपतिः) = सब कर्मों और प्रज्ञानों का स्वामी प्रभु (दस्यूनाम्) = हमारी सब (दस्युव) = वृत्तियों का (हन्ता) = विनाशक (अभवत्) = होता है।
भावार्थ -
हम उषाकाल में प्रबुद्ध होकर स्वाध्यायरूप तप से दीप्त जीवनवाले बनें। प्रभु के प्रकाश को देखें। प्रभु के द्वारा सब आसुरभावों का विनाश करनेवाले बनें।
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