अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
वा॑नस्प॒त्यः संभृ॑त उ॒स्रिया॑भिर्वि॒श्वगो॑त्र्यः। प्र॑त्रा॒सम॒मित्रे॑भ्यो व॒दाज्ये॑ना॒भिघा॑रितः ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒न॒स्प॒त्य: । सम्ऽभृ॑त: । उ॒स्रिया॑भि: । वि॒श्वऽगो॑त्र्य: । प्र॒ऽत्रा॒सम् । अ॒मित्रे॑भ्य: । व॒द॒ । आज्ये॑न । अ॒भिऽघा॑रित: ॥२१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वानस्पत्यः संभृत उस्रियाभिर्विश्वगोत्र्यः। प्रत्रासममित्रेभ्यो वदाज्येनाभिघारितः ॥
स्वर रहित पद पाठवानस्पत्य: । सम्ऽभृत: । उस्रियाभि: । विश्वऽगोत्र्य: । प्रऽत्रासम् । अमित्रेभ्य: । वद । आज्येन । अभिऽघारित: ॥२१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
विषय - आज्येन अभिवारितः
पदार्थ -
१. (वानस्पत्य:) = वनस्पति [काठ] से बना हुआ (उस्त्रियाभि:) = चर्म-रजुओं से (संभृतः) = सम्यक मढ़ा हुआ यह युद्धवाद्य (विश्वगोत्र्य:) = सब भूमि का उत्तम रक्षक है। २. (आग्येन) = तेजस्विता व शस्त्रों [वज्रों] के द्वारा (अभिधारित:) = दीप्त किया हुआ तू (अमित्रेभ्यः) = शत्रुओं के लिए (प्रत्रासं वद) = भय को कहनेवाला हो, तेरा उग्र घोष शत्रु-हदयों को भयभीत कर दे।
भावार्थ -
युद्धवाद्य राष्ट्रभूमि का रक्षक है, तेजस्विता व शस्त्रों से युक्त हुआ-हुआ यह शत्रुओं को भयभीत करनेवाला है। युद्धवाद्य के साथ योद्धाओं की तेजस्विता व शस्त्र-प्रहार शत्रुओं को परास्त करनेवाले होते हैं।
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