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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 4
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त

    यथा॑ मृ॒गाः सं॑वि॒जन्त॑ आर॒ण्याः पुरु॑षा॒दधि॑। ए॒वा त्वं दु॑न्दुभे॒ऽमित्रा॑न॒भि क्र॑न्द॒ प्र त्रा॑स॒याथो॑ चि॒त्तानि॑ मोहय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । मृ॒गा: । स॒म्ऽवि॒जन्ते॑ । आ॒र॒ण्या: । पुरु॑षात् ।अधि॑ । ए॒व । त्वम् । दु॒न्दु॒भे॒ । अ॒मित्रा॑न् । अ॒भि । क्र॒न्द॒ । प्र । त्रा॒स॒य॒ । अथो॒ऽइति॑ । चि॒त्तानि॑ । मो॒ह॒य॒ ॥२१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा मृगाः संविजन्त आरण्याः पुरुषादधि। एवा त्वं दुन्दुभेऽमित्रानभि क्रन्द प्र त्रासयाथो चित्तानि मोहय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । मृगा: । सम्ऽविजन्ते । आरण्या: । पुरुषात् ।अधि । एव । त्वम् । दुन्दुभे । अमित्रान् । अभि । क्रन्द । प्र । त्रासय । अथोऽइति । चित्तानि । मोहय ॥२१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (यथा) = जैसे (आरण्याः मृगा:) = जंगल के (मृग पुरुषात्) = पुरुष से-शिकारी से (अधि संविजन्ते) = भयभीत होकर भाग खड़े होते हैं, हे (दुन्दुभे) = युद्धवाद्य! (एव) = इसीप्रकार तू (अमित्रान् अभिक्रन्द) = शत्रुओं पर गर्जना करनेवाला हो, (प्रत्रासय) = उन्हें भयभीत कर दे, (अथ उ चित्तानि मोहय) = और उनके चित्तों को मोहित कर डाल, उन्हें मूढ़ बना डाल-उन्हें कर्तव्याकर्तव्य सूझे ही नहीं, वे किंकर्तव्यविमूढ़ बन जाएँ।

    भावार्थ -

    युद्धवाध का शब्द सुनकर हमारे शत्रु ऐसे भाग खड़े हों जैसे शिकारी से वन मृग भाग खड़े होते हैं।


     

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