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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 23

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 13
    सूक्त - कण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराडनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिघ्न सूक्त

    सर्वे॑षां च॒ क्रिमी॑णां॒ सर्वा॑सां च क्रि॒मीना॑म्। भि॒नद्म्यश्म॑ना॒ शिरो॒ दहा॑म्य॒ग्निना॒ मुख॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर्वे॑षाम् ।च॒ । क्रिमी॑णाम् । सर्वा॑साम् । च॒ । क्रि॒मीणा॑म् । भि॒नद्मि॑ । अश्म॑ना । शिर॑: । दहा॑मि । अ॒ग्निना॑ । मुख॑म् ॥२३.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वेषां च क्रिमीणां सर्वासां च क्रिमीनाम्। भिनद्म्यश्मना शिरो दहाम्यग्निना मुखम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वेषाम् ।च । क्रिमीणाम् । सर्वासाम् । च । क्रिमीणाम् । भिनद्मि । अश्मना । शिर: । दहामि । अग्निना । मुखम् ॥२३.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 13

    पदार्थ -

    १. (सर्वेषां च क्रिमीणाम्) = सब नर कृमियों का (च) = और (सर्वासां कृमीणाम्) = सब मादा कृमियों के (शिर:) = शिर को (अश्मना भिनधि) = पत्थर से विदीर्ण कर देता हूँ। २. (अग्निना) = अग्नि के द्वारा [तेज़ाब के प्रयोग से] इनके (मुखम् दहामि) = मुख को दग्ध कर देता हूँ।

    भावार्थ -

    नीरोगता के लिए नर-मादा सब कृमियों का विनाश आवश्यक है।

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