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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 23

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
    सूक्त - कण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिघ्न सूक्त

    अ॒स्येन्द्र॑ कुमा॒रस्य॒ क्रिमी॑न्धनपते जहि। ह॒ता विश्वा॒ अरा॑तय उ॒ग्रेण॒ वच॑सा॒ मम॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । इ॒न्द्र॒ । कु॒मा॒रस्य॑ । क्रिमी॑न् । ध॒न॒ऽप॒ते॒ । ज॒हि॒ । ह॒ता: । विश्वा॑:। अरा॑तय: । उ॒ग्रेण॑ । वच॑सा । मम॑ ॥२३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्येन्द्र कुमारस्य क्रिमीन्धनपते जहि। हता विश्वा अरातय उग्रेण वचसा मम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । इन्द्र । कुमारस्य । क्रिमीन् । धनऽपते । जहि । हता: । विश्वा:। अरातय: । उग्रेण । वचसा । मम ॥२३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. 'इन्द्र' सूर्य का भी नाम है और यह सूर्य सब प्राणदायी धनों का स्वामी है-'प्राण: प्रजानामुदयत्येष सूर्य:'। हे (धनपते) = सब प्राणधनों के स्वामीन् ! (इन्द्र) = सूर्य! (अस्य कुमारस्य) = इस कुमार के (क्रिमीन्) = शरीरस्थ रोग-कृमियों को (जहि) = विनष्ट कर-'उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्ति निम्रोचन हन्तु रश्मिभिः'। २. (मम) = मेरे (उग्रेण वचसा) = तेजस्वी वचनों से (विश्वा: अरातयः) = सब शत्रु (हता:) = विनष्ट हो जाते हैं अथवा मुझसे प्रयुक्त की जानेवाली इस उग्र-रोग-कृमियों के लिए भयंकर-वचा औषधि से सब रोग-कृमियों का विनाश हो जाता है।

    भावार्थ -

    सूर्य-किरणों का सेवन कृमि-विनाश के लिए सर्वोत्तम उपचार है। बचा ओषधि का प्रयोग भी कृमि-विनाश के लिए उपयोगी है।

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