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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 23

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 4
    सूक्त - कण्व देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिघ्न सूक्त

    सरू॑पौ॒ द्वौ विरू॑पौ॒ द्वौ कृ॒ष्णौ द्वौ रोहि॑तौ॒ द्वौ। ब॒भ्रुश्च॑ ब॒भ्रुक॑र्णश्च॒ गृध्रः॒ कोक॑श्च॒ ते ह॒ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सऽरू॑पौ । द्वौ । विऽरू॑पौ । द्वौ । कृ॒ष्णौ । द्वौ । रोहि॑तौ । द्वौ । ब॒भ्रु: । च॒ । ब॒भ्रुऽक॑र्ण: । च॒ । गृध्र॑ । कोक॑: । च॒ । ते । ह॒ता: ॥२३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरूपौ द्वौ विरूपौ द्वौ कृष्णौ द्वौ रोहितौ द्वौ। बभ्रुश्च बभ्रुकर्णश्च गृध्रः कोकश्च ते हताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सऽरूपौ । द्वौ । विऽरूपौ । द्वौ । कृष्णौ । द्वौ । रोहितौ । द्वौ । बभ्रु: । च । बभ्रुऽकर्ण: । च । गृध्र । कोक: । च । ते । हता: ॥२३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (सरूपौ द्वौ) = दो कृमि एकदम समान रूपवाले हैं-भिन्न-भिन्न रोगों का कारण बनते हैं, परन्तु उनका रूप एकदम मिलता-सा है। (विरूपी द्वौ) = दो कृमि भिन्न-भिन्न रूपोंवाले हैं-एक ही रोग का कारण बनते हैं, परन्तु हैं रूप में अलग-अलग। (द्वौ कृष्णौ) = दो कृष्णवर्ण कृमि है, (द्वौ रोहितौ) = दो लाल रंग के हैं-ये विविध रोगों को उत्पन्न करते हैं, २. (बभुः च बभुकर्णः च) = एक भूरे रंग का है और एक भूरे कानवाला है, (गृधः च) = एक मांस खा जाने का लोभी सा है तो (कोक: च) = एक दूसरा खून को पी जानेवाला है [कुक आदाने] (ते हताः) = [सूर्य किरणों के सेवन व वचा के प्रयोग से] वे सब मारे गये हैं।

    भावार्थ -

    संसार में विविध प्रकार के कृमि हैं, नीरोगता के लिए उन सबका विनाश आवश्यक है।

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