यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 37
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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या ते॒ धामा॑नि ह॒विषा॒ यज॑न्ति॒ ता ते॒ विश्वा॑ परि॒भूर॑स्तु य॒ज्ञम्। ग॒य॒स्फानः॑ प्र॒तर॑णः सु॒वीरोऽवी॑रहा॒ प्रच॑रा सोम॒ दुर्या॑न्॥३७॥
स्वर सहित पद पाठया। ते॒। धामा॑नि। ह॒विषा॑। यज॑न्ति। ता। ते॒। विश्वा॑। प॒रि॒भूरिति॑ परि॒ऽभूः। अ॒स्तु॒। य॒ज्ञम्। ग॒य॒स्फान॒ इति॑ गय॒ऽस्फानः॑। प्र॒तर॑ण॒ इति॑ प्र॒ऽतर॑णः। सु॒वीर॒ इति॑ सु॒ऽवीरः॑। अवी॑र॒हेत्यवी॑रऽहा। प्र। च॒र॒। सो॒म॒। दुर्य्या॑न् ॥३७॥
स्वर रहित मन्त्र
या ते धामानि हविषा यजन्ति ता ते विश्वा परिभूरस्तु यज्ञम् । गयस्पानः प्रतरणः सुवीरो वीरहा प्रचरा सोम दुर्यान् ॥
स्वर रहित पद पाठ
या। ते। धामानि। हविषा। यजन्ति। ता। ते। विश्वा। परिभूरिति परिऽभूः। अस्तु। यज्ञम्। गयस्फान इति गयऽस्फानः। प्रतरण इति प्रऽतरणः। सुवीर इति सुऽवीरः। अवीरहेत्यवीरऽहा। प्र। चर। सोम। दुर्य्यान्॥३७॥
विषय - ईश्वर और राजा का वर्णन ।
भावार्थ -
हे सोम राजन् ! परमेश्वर ( या धामानि ) जिन स्थानों को ( हविषा ) आदान अर्थात् साधक या वश करने के साधनों को ( यजन्ति ) तेरे सैनिक प्राप्त कर लेते हैं, ( ता ) उन ( ते ) तेरे ( विश्वा ) सब पर तू (यज्ञम् ) यज्ञ =शासन, सबके संगमस्थान, शासन, सभाभवन का ( परिभू: ) सब प्रकार से समर्थ अधिकारी होकर ( अस्तु ) रह । और तू ( गयस्फान: ) अपने प्रजा के पुत्र, धन और गृह ऐश्वर्य आदि की वृद्धि करता हुआ, ( प्रतरणः ) नाव के समान उनको सब कष्टों से पार करता हुआ (सुवीरः) उत्तम वीर भटों से युक्त, ( अवीरहा ) वीरों को व्यर्थ युद्धकलहों में नाश न करता हुआ ( दुर्यान् ) हमारे गृहों को ( प्रचर ) प्राप्त हो, हमसे परिचय प्राप्त कर ॥
ईश्वर पक्ष में- हे ईश्वर ! जिन तेरे बनाये धारणशील आश्रय पदार्थों, मूल तत्वों को विद्वान् जन ( हविषा ) ग्राह्य या दातव्य पदार्थ या कार्यसाधक पदार्थ से ( यजन्ति ) मिलाते हैं उन ( ते ) तेरे बनाये समस्त पदार्थों को हम भी मिलावें, प्राप्त करें और जो तेरा ( गयस्फान: ) ऐश्वर्यवर्धक ( सुवीरः) उत्तम बलयुक्त ( अवीरहा ) कातर मनुष्यों का नाशक ( यज्ञम् ) यज्ञ है, उस पर तू ( परिभूः ) सब प्रकार से शासक है । हे सोम, सर्वेश्वर या विद्वन् तू स्वयं यज्ञ का सम्पादन कर गृहों को प्राप्त हो, गृह के कार्यों को सम्पादन कर । अथवा हे परमेश्वर ! तू. ( या ते विश्वा धामानि ) जितने तेरे धाम, धारण सामर्थ्यों और तेजों को विद्वान् लोग ( हविषा यजन्ति ) ज्ञानपूर्वक उपासना करते हैं । ( ताः विश्वा ते ) वे सब तेरे ही सामर्थ्य हैं । और तू ( यज्ञम् परिभूः अस्तु) यज्ञ, समस्त प्राणों के संगमस्थान आत्मा के ऊपर भी वश करने हारा है। आप ( गयस्फानः प्रतरणः सुवीर : ) प्राण, पुत्र, धन, गृह आदि के वर्धक, दुःखों से पार उतारने वाले, उत्तम बलशाली, ( अवीरहा ) वीर पुरुषों के नाश न करने और कातरों के नाश करने वाले हैं। हे (सोम दुर्या नः प्रचर ) सोम राजन् हमारे भी द्वारों से युक्त इस अष्टचक्रा नव द्वारा पुरी के हृदयों में प्रकट होइये ।
टिप्पणी -
३७ - यज्ञो देवता ।द ० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
गोतमो राहूगण ऋषिः । सोमो यज्ञो देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥
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