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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 8
    ऋषिः - आत्रेय ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - आर्षी अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    विश्वो॑ दे॒वस्य॑ ने॒तुर्मर्त्तो॑ वुरीत स॒ख्यम्। विश्वो॑ रा॒यऽइ॑षुध्यति द्यु॒म्नं वृ॑णीत पु॒ष्यसे॒ स्वाहा॑॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वः॑। दे॒वस्य॑। ने॒तुः। मर्त्तः॑। वु॒री॒त॒। स॒ख्यम्। विश्वः॑। रा॒ये। इ॒षु॒ध्य॒ति॒। द्यु॒म्नम्। वृ॒णी॒त॒। पु॒ष्यसे॑। स्वाहा॑ ॥८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वो देवस्य नेतुर्मर्ता वुरीत सख्यम् । विश्वो राय इषुध्यति द्युम्नँ वृणीत पुष्यसे स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वः। देवस्य। नेतुः। मर्त्तः। वुरीत। सख्यम्। विश्वः। राये। इषुध्यति। द्युम्नम्। वृणीत। पुष्यसे। स्वाहा॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 8
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    भावार्थ -

    ( विश्व: ) समस्त ( मर्तः ) मनुष्य लोग ( नेतु ) अपने नेता ( देवस्य ) ईश्वर और राजा के ( सख्यम् ) मित्रता को ( बुरीत ) वरें, चाहें (विश्वः ) और सब ( राये ) धन ऐश्वर्य के प्राप्त करने लिये ( इषुध्यति ) वाणा, शस्त्रास्त्र धारण करें और सभी ( द्युम्नम् ) धन को ( पुष्यसे ) शरीर और आत्मा की पुष्टि, बल वृद्धि के लिये ( वृणीत ) चाहें ( स्वाहा ) यही उसका उत्तम सत् उपयोग है। या उस धनको उत्तम कार्य में त्याग करें ।
     ( विश्वो राये इषुध्यति ) सभी धन की याचना करते हैं ॥ [ उव्वट-महीधर ] शत० ३ । १ । ४ । १८ । २३ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    स्वस्त्यात्रेय ऋषिः । ईश्वरः सविता देवता । अनुष्टुप् । गान्धारः स्वरः ॥

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