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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    स्वाहा॑ य॒ज्ञं मन॑सः॒ स्वाहो॑रोर॒न्तरि॑क्षा॒त् स्वाहा॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒ स्वाहा॒ वाता॒दार॑भे॒ स्वाहा॑॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वाहा॑। य॒ज्ञम्। मन॑सः। स्वाहाः॑। उ॒रोः। अ॒न्तरि॑क्षात्। स्वाहा॑। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। स्वाहा॑। वाता॑त्। आ। र॒भे॒ स्वाहा॑ ॥६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाहा यज्ञम्मनसः स्वाहोरोरन्तरिक्षात्स्वाहा द्यावापृथिवीभ्याँस्वाहा वातादा रभे स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाहा। यज्ञम्। मनसः। स्वाहाः। उरोः। अन्तरिक्षात्। स्वाहा। द्यावापृथिवीभ्याम्। स्वाहा। वातात्। आ। रभे स्वाहा॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 6
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    भावार्थ -

     मैं प्रजापति, प्रजा का पालक ( मनसः ) मन से ( यज्ञम् ) यज्ञ का ( स्वाहा ) उत्तम वेदोक्त वाणी के मनन द्वारा ( आरभे) यज्ञ सम्पादन करूं । ( उरो : ) विशाल ( अन्तरिक्षात् ) अन्तरिक्ष से ( स्वाहा ) उत्तम आहुति द्वारा ( यज्ञम् आ रमे ) यज्ञ सम्पादन करूं । ( द्यावापृथिवीभ्याम् ) द्यौः, ऊपर का विस्तृत आकाश और समस्त पृथिवी मण्डल दोनों से ( स्वाहा ) दोनों की शक्तियों को परस्पर में आदान प्रतिदान की क्रिया से ( यज्ञम् आरभे ) यज्ञ को सम्पादन करता हूं और मैं (वातात्) वात- वायु से प्राण के निश्वास ऊध्वास क्रिया द्वारा अथवा समुद्र से मेघों को लेकर भूमि पर उत्तम रीति से वर्षण क्रिया द्वारा ( यज्ञम् आरभे ) यज्ञ करता हूं॥
    दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम् ।
    सम्पद्विनिमयेनोभौ दधतुभुवनद्वयम् ॥ रघु° ।
    अर्थात् परमेश्वर पांच यज्ञ करता है । ( १ ) मानस्यज्ञ, सबको अपने संकल्प बल से चला रहा है और वेदवाणी द्वारा सबको उपदेश करता है । ( २ ) अन्तरिक्ष यज्ञ, उसमें नित्य मेघों का उठना और लीन होना ।( ३, ४ ) द्यावापृथिवीयज्ञ, सूर्य का जल खंचना और पृथ्वी पर वर्षा की आहुति होना। ( ५ ) वातयज्ञ, वायु का मेघों को धारण करना, बिजुली का गिरांना या प्राणापान यज्ञ । यह सब परमात्मा स्वयं करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    यज्ञो देवता । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः स्वरः ॥

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