यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 34
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - यजमानो देवता
छन्दः - भूरिक् आर्ची गायत्री,भूरिक् आर्ची बृहती,विराट् आर्ची अनुष्टुप्
स्वरः - षड्जः, मध्यमः, गान्धारः
1
भ॒द्रो मे॑ऽसि॒ प्रच्य॑वस्व भुवस्पते॒ विश्वा॑न्य॒भि धामा॑नि। मा त्वा॑ परिप॒रिणो॑ विद॒न् मा त्वा॑ परिप॒न्थिनो॑ विद॒न् मा त्वा॒ वृका॑ऽअघा॒यवो॑ विदन्। श्ये॒नो भू॒त्वा परा॑पत॒ यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छ॒ तन्नौ॑ सँस्कृ॒तम्॥३४॥
स्वर सहित पद पाठभ॒द्रः। मे॒। अ॒सि॒। प्र। च्य॒व॒स्व॒। भु॒वः॒। प॒ते॒। वि॒श्वा॑नि। अ॒भि। धामा॑नि। मा। त्वा॒। प॒रि॒प॒रिण॒ इति॑ परिऽप॒रिणः॑। वि॒द॒न्। मा। त्वा॒। प॒रि॒प॒न्थिन॒ इति॑ परिऽप॒न्थिनः॑। वि॒द॒न्। मा। त्वा॒। वृकाः॑। अ॒घा॒यवः॑। अ॒घ॒यव॒ इत्य॑घ॒ऽयवः॑। वि॒द॒न्। श्ये॒नः। भू॒त्वा। परा॑। प॒त॒। यज॑मानस्य। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒। तत्। नौ॒। सँ॒स्कृ॒तम् ॥३४॥
स्वर रहित मन्त्र
भद्रो मेसि प्रच्यवस्व भुवस्पते विश्वान्यभि धामानि । मा त्वा परिपरिणो विदन्मा त्वा परिपन्थिनो विदन्मा वृका अघायवो विदन् । श्येनो भूत्वा परा पत यजमानस्य गृहान्गच्छ तन्नौ सँस्कृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
भद्रः। मे। असि। प्र। च्यवस्व। भुवः। पते। विश्वानि। अभि। धामानि। मा। त्वा। परिपरिण इति परिऽपरिणः। विदन्। मा। त्वा। परिपन्थिन इति परिऽपन्थिनः। विदन्। मा। त्वा। वृकाः। अघायवः। अघयव इत्यघऽयवः। विदन्। श्येनः। भूत्वा। परा। पत। यजमानस्य। गृहान्। गच्छ। तत्। नौ। सँँस्कृतम्॥३४॥
विषय - विजय, दुष्ट-दमन की सुव्यवस्था का उपदेश ।
भावार्थ -
-हे (भुवः पते ) पृथ्वी के पालक राजन् ! तू ( मे ) मुझ राष्ट्रवासी प्रजाजन के लिये ( भद्रः ) कल्याण करने और सुख पहुंचाने वाला ( असि ) है ( विश्वानि धामानि ) समस्त राष्ट्र के अन्तर्गत स्थानों या पृथ्वी पर विद्यमान देशों को ( अभि प्र च्यवस्व ) प्राप्त हो, उन पर आक्रमण करके विजय कर। ऐसी दशा में (त्वा ) तुझको ( परिपरिणः) पर्यवस्थाता, तुझे घेर लेने वाले शत्रुगण या आक्रामक, चोर डाकू लोग ( मा विदन् ) न पकड़ सकें, तुझ तक न पहुंचे और ( परिपन्थिनः ) शत्रु लोग, दस्युजन ( त्वा मा विदन् ) तुझे न जान पावें। और ( अघावयः ) तुझ पर हत्या आदि का पाप करने की इच्छावाले ( वृकाः) चोर लोग ( मा त्वा विदन् ) तुझे न पावें । तू उन पर ( श्येनः भूत्वा ) श्येन होकर, अर्थात् शिकार पर जिस प्रकार बाज़ झपटता है उस प्रकार, उन पर ( परापत ) दूर तक आक्रमण कर और विजयी होकर आ । या ( श्वेनो भूत्वा परापत ) श्येन बाज के समान शीघ्रगामी होकर उनके फन्दों से छूट आ । ( यजमानस्य ) सत्संग करने योग्य पूजनीय विद्वान् पुरुषों के ( गृहान् गच्छ ) गृहों को या उनसे बसे द्वीप, देश देशान्तर को प्राप्त हो । ( नौ ) हम प्रजाजन और तुझ राजा दोनों का (तत्) वह विजयोपयोगी युद्धोपकरण रथ आदि सब ( सुसंस्कृतम्) उत्तम रीति से सुसज्जित हो या (नौ तत् सुसंस्कृतम् ) हमारा परस्पर - वह सब शासन और विजय कार्य उत्तम रीति से हो ।।
टिप्पणी -
३४ - यजमानो देवता । द० ॥ १ भद्रो। २ मात्वा। ३ श्येनो।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
यजमानः सोमो वा देवता । (१ ) भुरिगार्षी गायत्री । षड्जः । ( २ ) भुरिगार्ची बृहति मध्यमः । ( ३ ) विराड् आर्ची । गान्धारः ॥
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