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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः छन्दः - पुरउष्णिक् सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त

    आपो॒ अग्रं॑ दि॒व्या ओष॑धयः। तास्ते॒ यक्ष्म॑मेन॒स्यमङ्गा॑दङ्गादनीनशन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । अग्र॑म् । दि॒व्या: । ओष॑धय: । ता: । ते॒ । यक्ष्म॑म् । ए॒न॒स्य᳡म् । अङ्गा॑त्ऽअङ्गात् । अ॒नी॒न॒श॒न् ॥७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो अग्रं दिव्या ओषधयः। तास्ते यक्ष्ममेनस्यमङ्गादङ्गादनीनशन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । अग्रम् । दिव्या: । ओषधय: । ता: । ते । यक्ष्मम् । एनस्यम् । अङ्गात्ऽअङ्गात् । अनीनशन् ॥७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (अग्रम्) सब से प्रथम और सब से उत्कृष्ट (ओषधयः) ओषधि जो रोग और पाप को नाश करने में समर्थ हैं वे (दिव्याः) दिव्य गुणयुक्त (आपः) अप्=जलों के समान पवित्र और अन्यों को पवित्र करने वाले आप्त विद्वान् पुरुष हैं। वे शीतल स्वभाव होकर पापों के लिये संतापकारी हैं (ताः) वे (ते) तेरे (एनस्यम्) पाप से उत्पन्न (यक्ष्मम्) राजरोग को (अंगात् अंगात्) शरीर के अङ्ग अङ्ग से (अनीनशन्) विनाश कर देते हैं। जिस प्रकार रोगों को दूर करने में दिव्य जल सबसे उत्तम औषधि हैं और जल विलासादि द्वारा उत्पन्न रोगों को सुलभतया विनाश कर देता है उसी प्रकार आप्त पुरुष भी हैं जो ज्ञानोपदेश से पापभावों को दूर करते हैं। समस्त रोग जलों द्वारा दूर करने के उपाय हाइड्रोपैथी (जलचिकित्सा) द्वारा जानने चाहिये।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः ओषधयो देवता। १, ७, ९, ११, १३, १६, २४, २७ अनुष्टुभः। २ उपरिष्टाद् भुरिग् बृहती। ३ पुर उष्णिक्। ४ पञ्चपदा परा अनुष्टुप् अति जगती। ५,६,१०,२५ पथ्या पङ्क्तयः। १२ पञ्चपदा विराड् अतिशक्वरी। १४ उपरिष्टान्निचृद् बृहती। २६ निचृत्। २२ भुरिक्। १५ त्रिष्टुप्। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्।

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