अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 15
सूक्त - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
सिंह॑स्येव स्त॒नथोः॒ सं वि॑जन्ते॒ऽग्नेरि॑व विजन्ते॒ आभृ॑ताभ्यः। गवां॒ यक्ष्मः॒ पुरु॑षाणां वी॒रुद्भि॒रति॑नुत्तो ना॒व्या एतु स्रो॒त्याः ॥
स्वर सहित पद पाठसिं॒हस्य॑ऽइव । स्त॒नयो॑: । सम् । वि॒ज॒न्ते॒ । अ॒ग्ने:ऽइ॑व । वि॒ज॒न्ते॒ । आऽभृ॑ताभ्य: । गवा॑म् । यक्ष्म॑: । पुरु॑षाणाम् । वी॒रत्ऽभि॑: । अति॑ऽनुत्त: । ना॒व्या᳡: । ए॒तु॒ । स्रो॒त्या: ॥७.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
सिंहस्येव स्तनथोः सं विजन्तेऽग्नेरिव विजन्ते आभृताभ्यः। गवां यक्ष्मः पुरुषाणां वीरुद्भिरतिनुत्तो नाव्या एतु स्रोत्याः ॥
स्वर रहित पद पाठसिंहस्यऽइव । स्तनयो: । सम् । विजन्ते । अग्ने:ऽइव । विजन्ते । आऽभृताभ्य: । गवाम् । यक्ष्म: । पुरुषाणाम् । वीरत्ऽभि: । अतिऽनुत्त: । नाव्या: । एतु । स्रोत्या: ॥७.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 15
विषय - औषधि विज्ञान।
भावार्थ -
जिस प्रकार पशु (सिंहस्य) शेर के (स्तनथोः) गर्जन से (सं विजन्ते) खूब भयभीत हो जाते हैं और जिस प्रकार पशु (अग्नेः) अग्नि से (विजन्ते) व्याकुल हो जाते हैं उसी प्रकार (आभृताभ्यः) संग्रह की हुई ओषधियों से रोग के कीट भी कांपते हैं और भय से व्याकुल हो जाते हैं। और इसीलिए (वीरुद्भिः) ओषधि लताओं से (अतिनुत्तः) पराजित हुआ हुआ (गवाम्) गौ आदि पशुओं और (पुरुषाणाम्) मनुष्यों का (यक्ष्मः) पीड़ाकारी रोग (नाव्याः) नावों से तरने योग्य (स्रोत्याः) नदियों के समान हमारे शरीर में सदा नवरक्त से पूर्ण बहाने वाली रक्त नाड़ियों से परे दूर (एतु) चला जाय। यहां मुख्य अर्थ भी सम्भव है कि नावों से तरने योग्य नदियों से दूर चला जाय। वेद में “९०, या ९९ बड़ी नदियों के पार चला जाना” यह मुहावरा अति दूर चले जाने के अर्थ में प्रायः प्रयुक्त हुआ है। इसका प्रयोग भाषाओं में उसी प्रकार समझना चाहिए जैसे ‘सात समुद्रों पार’ का प्रयोग होता है। अथवा जीवन के एक एक वर्ष को एक एक ‘नाव्य नदी’ से उपमा दी गई है। ‘९९ नाव्य नदी’ जीवन के ९९ वर्ष हैं। रोगादि हमारे ९९ वर्ष के जीवन से परे रहें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः ओषधयो देवता। १, ७, ९, ११, १३, १६, २४, २७ अनुष्टुभः। २ उपरिष्टाद् भुरिग् बृहती। ३ पुर उष्णिक्। ४ पञ्चपदा परा अनुष्टुप् अति जगती। ५,६,१०,२५ पथ्या पङ्क्तयः। १२ पञ्चपदा विराड् अतिशक्वरी। १४ उपरिष्टान्निचृद् बृहती। २६ निचृत्। २२ भुरिक्। १५ त्रिष्टुप्। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्।
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