अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 15
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
65
सिंह॑स्येव स्त॒नथोः॒ सं वि॑जन्ते॒ऽग्नेरि॑व विजन्ते॒ आभृ॑ताभ्यः। गवां॒ यक्ष्मः॒ पुरु॑षाणां वी॒रुद्भि॒रति॑नुत्तो ना॒व्या एतु स्रो॒त्याः ॥
स्वर सहित पद पाठसिं॒हस्य॑ऽइव । स्त॒नयो॑: । सम् । वि॒ज॒न्ते॒ । अ॒ग्ने:ऽइ॑व । वि॒ज॒न्ते॒ । आऽभृ॑ताभ्य: । गवा॑म् । यक्ष्म॑: । पुरु॑षाणाम् । वी॒रत्ऽभि॑: । अति॑ऽनुत्त: । ना॒व्या᳡: । ए॒तु॒ । स्रो॒त्या: ॥७.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
सिंहस्येव स्तनथोः सं विजन्तेऽग्नेरिव विजन्ते आभृताभ्यः। गवां यक्ष्मः पुरुषाणां वीरुद्भिरतिनुत्तो नाव्या एतु स्रोत्याः ॥
स्वर रहित पद पाठसिंहस्यऽइव । स्तनयो: । सम् । विजन्ते । अग्ने:ऽइव । विजन्ते । आऽभृताभ्य: । गवाम् । यक्ष्म: । पुरुषाणाम् । वीरत्ऽभि: । अतिऽनुत्त: । नाव्या: । एतु । स्रोत्या: ॥७.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग के विनाश का उपदेश।
पदार्थ
वे [रोग] (आभृताभ्यः) सब प्रकार पुष्ट की हुई [ओषधियों] से (विजन्ते) डरते हैं, (इव) जैसे (सिंहस्य) सिंह की (स्तनथोः) गर्जन से और (इव) जैसे (अग्नेः) अग्नि से (सम् विजन्ते) [प्राणी] डरकर भागते हैं। (गवाम्) गौओं का और (पुरुषाणाम्) पुरुषों का (यक्ष्मः) राजरोग (वीरुद्भिः) ओषधियों करके (नाव्याः) नौका से उतरने योग्य (स्रोत्याः) नदियों के (अतिनुत्तः) पार प्रेरणा किया गया (एतु) चला जावे ॥१५॥
भावार्थ
जहाँ पर मनुष्य अन्न आदि ओषधियों का उचित प्रयोग करते हैं, वहाँ रोग नदीरूप इन्द्रियों से दूर चले जाते हैं ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(सिंहस्य) अ० ४।८।७। हिंस्रजन्तुविशेषस्य (इव) यथा (स्तनथोः) अ० ५।३१।६। गर्जनात् (सम् विजन्ते) अ० ५।२१।६। भयेन चलन्ति प्राणिन इति शेषः (अग्नेः) पावकात् (इव) (विजन्ते) बिभ्यति रोगा इति शेषः (आभृताभ्यः) समन्तात् पोषिताभ्यो वीरुद्भ्यः (गवाम्) धेनूनाम् (यक्ष्मः) राजरोगः (वीरुद्भिः) ओषधीभिः (अतिनुत्तः) णुद प्रेरणे-क्त। अतीत्य प्रेरितः (नाव्याः) अ० ८।५।९। नावा पार्याः (एतु) गच्छतु (स्रोत्याः) अ० १।१३२।३। नदीः ॥
पदार्थ
१. (इव) = जिस प्रकार पशु (सिंहस्य स्तनथो: संविजन्ते) = शेर के गर्जन से भयभीत होकर भाग उठते हैं और (इव) = जिस प्रकार ये पशु (अग्नेः विजन्ते) = अग्नि से व्याकुल हो उठते हैं। २. इन (वीरुद्भि:) ओषधिभूत बेलों से (अतिनुत्तः) = अतिशयेन परे धकेला हुआ यह (गवां पुरुषाणां यक्ष्मः) = गौओं [पशुओं] व पुरुषों का रोग (नाव्याः स्त्रोत्याः एतु) = नावों से तरने योग्य नदियों से भी परे चला जाए-निन्यानवे नदियों के पार चला जाए।
भावार्थ
ओषधिनुत्त रोग 'सात समुन्द्र पार' पहुँच जाए। ये रोग हमारे जीवन के निन्यानवे वर्षों से परे रहें।
भाषार्थ
(आभृताभ्यः = आहृताभ्यः) लाई हुई वीरुधों से (सं विजन्ते) भय से कांप जाते हैं रोग; (इव) जैसे (सिंहस्य स्तनथोः) सिंह की गर्जना से [वन्य पशु आदि], तथा (इव) जैसे (अग्नेः) अग्नि से पशु आदि सम्यक् रूप में [भय से] (विजन्ते) कांप जाते हैं, (गवाम् पुरुषाणाम्) गौओं और पुरुषों का (यक्ष्मः) यक्ष्म रोग, इसी प्रकार (वीरुद्भिः) वीरुधों द्वारा (नुत्तः) धकेला गया, (नाव्याः स्रोत्याः) नौका द्वारा पार करने योग्य नदियों को (अति एतु) अतिक्रान्त कर चला जाय। अर्थात् जैसे मनुष्य नौका द्वारा गहरी और तेज नदियों से पार हो जाते हैं, वैसे यक्ष्म आदि रोग वीरुधों द्वारा शारीरिक नस-नाड़ियों से पार हो जाते हैं (देखो अथर्व० ८।५।९)।
टिप्पणी
[मन्त्र १४ में वैयाघ्र का वर्णन हुआ है और मन्त्र १५ में सिंह की स्तनथु अर्थात् स्तनयित्नु का, गर्जन का]।
विषय
औषधि विज्ञान।
भावार्थ
जिस प्रकार पशु (सिंहस्य) शेर के (स्तनथोः) गर्जन से (सं विजन्ते) खूब भयभीत हो जाते हैं और जिस प्रकार पशु (अग्नेः) अग्नि से (विजन्ते) व्याकुल हो जाते हैं उसी प्रकार (आभृताभ्यः) संग्रह की हुई ओषधियों से रोग के कीट भी कांपते हैं और भय से व्याकुल हो जाते हैं। और इसीलिए (वीरुद्भिः) ओषधि लताओं से (अतिनुत्तः) पराजित हुआ हुआ (गवाम्) गौ आदि पशुओं और (पुरुषाणाम्) मनुष्यों का (यक्ष्मः) पीड़ाकारी रोग (नाव्याः) नावों से तरने योग्य (स्रोत्याः) नदियों के समान हमारे शरीर में सदा नवरक्त से पूर्ण बहाने वाली रक्त नाड़ियों से परे दूर (एतु) चला जाय। यहां मुख्य अर्थ भी सम्भव है कि नावों से तरने योग्य नदियों से दूर चला जाय। वेद में “९०, या ९९ बड़ी नदियों के पार चला जाना” यह मुहावरा अति दूर चले जाने के अर्थ में प्रायः प्रयुक्त हुआ है। इसका प्रयोग भाषाओं में उसी प्रकार समझना चाहिए जैसे ‘सात समुद्रों पार’ का प्रयोग होता है। अथवा जीवन के एक एक वर्ष को एक एक ‘नाव्य नदी’ से उपमा दी गई है। ‘९९ नाव्य नदी’ जीवन के ९९ वर्ष हैं। रोगादि हमारे ९९ वर्ष के जीवन से परे रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः ओषधयो देवता। १, ७, ९, ११, १३, १६, २४, २७ अनुष्टुभः। २ उपरिष्टाद् भुरिग् बृहती। ३ पुर उष्णिक्। ४ पञ्चपदा परा अनुष्टुप् अति जगती। ५,६,१०,२५ पथ्या पङ्क्तयः। १२ पञ्चपदा विराड् अतिशक्वरी। १४ उपरिष्टान्निचृद् बृहती। २६ निचृत्। २२ भुरिक्। १५ त्रिष्टुप्। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Health and Herbs
Meaning
As deer from the lion’s roar and cold from the heat of fire, so do ailments run off from the force of herbs and medications when they are brought for the sick and suffering. Let the consumptive and cancerous diseases of cows and people go away by herbal medications beyond the navigable streams around.
Translation
From the medicinal herbs (plants) brought here, they are frightened, as they are frightened from a roaring lion or fire. May the consumptive disease of cows and men, chased by herbs, flee across the navigable river.
Translation
As the wild animals fly away with fear from the roar of lion, as they fly away from fire so the diseases fly away from the medicinal plants collected and procured. Let the consumption of cow and men expelled by the plants pass away from us to the revers navigable.
Translation
As cattle are afraid of a lion’s roar or fire, so are diseases afraid of medicinal herbs. Expelled by herbs, let men’s and kine’s consumption go away from our organs, as streams are crossed through boats.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(सिंहस्य) अ० ४।८।७। हिंस्रजन्तुविशेषस्य (इव) यथा (स्तनथोः) अ० ५।३१।६। गर्जनात् (सम् विजन्ते) अ० ५।२१।६। भयेन चलन्ति प्राणिन इति शेषः (अग्नेः) पावकात् (इव) (विजन्ते) बिभ्यति रोगा इति शेषः (आभृताभ्यः) समन्तात् पोषिताभ्यो वीरुद्भ्यः (गवाम्) धेनूनाम् (यक्ष्मः) राजरोगः (वीरुद्भिः) ओषधीभिः (अतिनुत्तः) णुद प्रेरणे-क्त। अतीत्य प्रेरितः (नाव्याः) अ० ८।५।९। नावा पार्याः (एतु) गच्छतु (स्रोत्याः) अ० १।१३२।३। नदीः ॥
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