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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः छन्दः - द्विपदार्ची भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
    56

    अ॒वको॑ल्बा उ॒दका॑त्मान॒ ओष॑धयः। व्यृषन्तु दुरि॒तं ती॑क्ष्णशृ॒ङ्ग्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒वका॑ऽउल्बा: । उ॒दक॑ऽआत्मान: । ओष॑धय: । वि । ऋ॒ष॒न्तु॒ । दु॒:ऽइ॒तम् । ती॒क्ष्ण॒ऽशृ॒ङ्ग्य᳡: ॥७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवकोल्बा उदकात्मान ओषधयः। व्यृषन्तु दुरितं तीक्ष्णशृङ्ग्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवकाऽउल्बा: । उदकऽआत्मान: । ओषधय: । वि । ऋषन्तु । दु:ऽइतम् । तीक्ष्णऽशृङ्ग्य: ॥७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग के विनाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (अवकोल्बाः) पीड़ा को जलानेवाली, (उदकात्मानः) जल को जीवन रखनेवाली, (तीक्ष्णशृङ्ग्यः) [रोग को] तीक्ष्ण काट करनेवाली (ओषधयः) ओषधियाँ (दुरितम्) कष्ट को (वि) बाहिर (ऋषन्तु) निकालें ॥९॥

    भावार्थ

    वैद्य लोग परीक्षित उत्तम ओषधियों से रोग की चिकित्सा करें ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(अवकोल्बाः) अवका-उल्बाः कृञादिभ्यः०। उ० ५।३५। अव हिंसायाम्−वुन्, टाप्। उल्वादयश्च। उ० ४।९५। उल दाहे, सौ० धा०-वन्, वस्य बः। हिंसादाहिकाः (उदकात्मानः) जलप्रधानाः (ओषधयः) (वि) बहिर्भावे (ऋषन्तु) ऋषी गतौ, अन्तर्गतण्यर्थः। गमयन्तु (दुरितम्) कष्टम् (तीक्ष्णशृङ्ग्यः) तिजेदीर्घश्च। उ० ३।१८। तिज निशाने−क् स्नः। शृणातेर्ह्रस्वश्च उ० १।१२६। शॄ हिंसायाम्-गन्, नुट् च। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। ङीप्। रोगस्य तीक्ष्णकर्तनाः ॥

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    विषय

    अवकोल्बाः, उदकात्मानः

    पदार्थ

    (अवका-उल्बा:) = जल के शैवाल के भीतर उत्पन्न होनेवाली, (उदकात्मान:) = जलमय देहवाली तीक्ष्णभृङ्गायः-तीखे सींग व काँटोंवाली ओषधयः ओषधियाँ दुरितम्-अशुभ आचरण से उत्पन्न दुःखदायी रोग को विऋषन्तु-विशेषरूप से दूर करें।

    भावार्थ

    जल के शैवाल के भीतर उत्पन्न होनेवाली तीक्ष्णशृंगी उदकात्मा ओषधियाँ पापरोग को दूर करनेवाली हों।

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    भाषार्थ

    (अवकोल्बाः) काई से लिपटी हुई, (उदकात्मानः) जलोत्पन्न, (तीक्ष्णशृङ्ग्यः) तीक्ष्ण काटों वाली (ओषधयः) ओषधियां, (दुरितम्) दुष्कर्मों द्वारा प्राप्त [यक्ष्म] को (व्यृषन्तु) विगत करें, दूर करें। उल्ब = गर्भस्थ शिशु पर लिपटी हुई झिल्ली।

    टिप्पणी

    [व्यृषन्तु = वि + ऋषी गतौ (तुदादिः), विगत करें। दुरितम् = दुर् (बुरे कर्मों द्वारा) + इतम् (प्राप्त)। रोगों का मूल कारण है, पाप। यथा “यक्ष्मम्, एनस्यम्" (मन्त्र ३)। "अवका" अर्थात् काई उदक में पैदा होती है। अतः ये ओषधियां उदकात्मा हैं। "तीक्ष्णशृङ्गी" ओषधियां भी यक्ष्म निवारक हैं]।

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    विषय

    औषधि विज्ञान।

    भावार्थ

    (अवका-उल्वाः) जलमें उतराने वाले सेवार के भीतर उत्पन्न होनेवाली (उदकात्मानः) जलमय देहवाली, जल के बिना न जीनेवाली और (तीक्ष्ण-श्रृङ्ग्यः) तीखे सींग या कांटोंवाली ओषधियां भी (दुरितम्) दुःखदायी रोग को (वि ऋषन्तु) विशेष रूप से दूर करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः ओषधयो देवता। १, ७, ९, ११, १३, १६, २४, २७ अनुष्टुभः। २ उपरिष्टाद् भुरिग् बृहती। ३ पुर उष्णिक्। ४ पञ्चपदा परा अनुष्टुप् अति जगती। ५,६,१०,२५ पथ्या पङ्क्तयः। १२ पञ्चपदा विराड् अतिशक्वरी। १४ उपरिष्टान्निचृद् बृहती। २६ निचृत्। २२ भुरिक्। १५ त्रिष्टुप्। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health and Herbs

    Meaning

    Coated with Avaka plant juice against infection, grown in waters, sharp in catalytic action, let these medications fight out the evil of disease.

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    Translation

    May the plants, covered with duck-weed (Blyxa octandra; Avaka); and with water as their soul, equipped with sharp horns, remove the distress. (Also Av. IX.37.8 for Avaka)

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    Translation

    Let the plants which grow up in water, and Avaka, the Blyxa-Octandra which burns up the pain and which have sharp thorn dispel away disease and its troubles.

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    Translation

    Let plants that banish pain, whose soul is water, piercing with their sharp horns expel the malady.

    Footnote

    Whose soul is water: which cannot live and grow without water.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(अवकोल्बाः) अवका-उल्बाः कृञादिभ्यः०। उ० ५।३५। अव हिंसायाम्−वुन्, टाप्। उल्वादयश्च। उ० ४।९५। उल दाहे, सौ० धा०-वन्, वस्य बः। हिंसादाहिकाः (उदकात्मानः) जलप्रधानाः (ओषधयः) (वि) बहिर्भावे (ऋषन्तु) ऋषी गतौ, अन्तर्गतण्यर्थः। गमयन्तु (दुरितम्) कष्टम् (तीक्ष्णशृङ्ग्यः) तिजेदीर्घश्च। उ० ३।१८। तिज निशाने−क् स्नः। शृणातेर्ह्रस्वश्च उ० १।१२६। शॄ हिंसायाम्-गन्, नुट् च। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। ङीप्। रोगस्य तीक्ष्णकर्तनाः ॥

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