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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः छन्दः - उपरिष्टाद्भुरिग्बृहती सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
    72

    त्राय॑न्तामि॒मं पुरु॑षं॒ यक्ष्मा॑द्दे॒वेषि॑ता॒दधि॑। यासां॒ द्यौष्पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता स॑मु॒द्रो मूलं॑ वी॒रुधां॑ ब॒भूव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्राय॑न्ताम् । इ॒मम् । पुरु॑षम् । यक्ष्मा॑त् । दे॒वऽइ॑षितात् । अधि॑ । यासा॑म् । द्यौ: । पि॒ता । पृ॒थि॒वी । मा॒ता ।स॒मु॒द्र: । मूल॑म् । वी॒रुधा॑म् । ब॒भूव॑ ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रायन्तामिमं पुरुषं यक्ष्माद्देवेषितादधि। यासां द्यौष्पिता पृथिवी माता समुद्रो मूलं वीरुधां बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रायन्ताम् । इमम् । पुरुषम् । यक्ष्मात् । देवऽइषितात् । अधि । यासाम् । द्यौ: । पिता । पृथिवी । माता ।समुद्र: । मूलम् । वीरुधाम् । बभूव ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग के विनाश का उपदेश।

    पदार्थ

    वे [ओषधियाँ] (इमम् पुरुषम्) इस पुरुष को (देवेषितात्) उन्माद से प्राप्त हुए (यक्ष्मात्) राजरोग से (अधि) अधिकारपूर्वक (त्रायन्ताम्) रक्षा करें। (यासाम् वीरुधाम्) जिन उगनेवाली [अन्न आदि ओषधियों] का (द्यौः) सूर्य (पिता) पालनेवाला, (पृथिवी) पृथिवी (माता) उत्पन्न करनेवाली और (समुद्रः) समुद्र [जल] (मूलम्) जड़ (बभूव) हुआ था ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य अन्न आदि अनेक ओषधियों की उत्पत्ति और गुण जान करके उनके सेवन से यथावत् रक्षा करें ॥२॥ इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध आ चुका है-अ० ३।२३।६ ॥

    टिप्पणी

    २−(त्रायन्ताम्) रक्षन्तु (इमम्) प्रसिद्धम् (पुरुषम्) प्राणिनम् (यक्ष्मात्) अ० २।१०।५। राजरोगात् (देवेषितात्) दिवु मदे-अच्+इष गतौ-क्त। उन्मादात् प्राप्तात् (अधि) अधिकृत्य (द्यौष्पिता) छन्दसि वाऽप्राम्रेडितयोः। पा० ८।३।४९। विसर्जनीयस्य वा सकारः। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ३।२३।६ ॥

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    विषय

    देवेषितात् यक्ष्मात्

    पदार्थ

    १. (यासाम्) = जिन (वीरुधाम्) = बेलों का-ओषधियों का (द्यौः पिता) = धुलोकस्थ सूर्य ही पिता है-सूर्य ही इनमें प्राणदायी तत्त्वों की स्थापना करता है, वही इनके परिपाक का कारण बनता है। (पृथिवी माता) = यह भूमि ही इन वीरुधों की माता है, इसी से इन्हें रस व पुष्टि प्राप्त होती है। (समुद्रः मूलं बभूव) = समुद्र इनका मूल है, समुद्र से ही बाष्पीभूत हुआ-हुआ जल मेघरूप में परिणत होकर इन्हें सींचता है। ये वीरुध (इमं पुरुषम्) = इस पुरुष को (देवेषितात्) = [दिवु क्रीडायाम्] विषयक्रीड़ा द्वारा प्राप्त हुए-हुए (यक्ष्मात्) = राजयक्ष्मा रोग से (अधिनायन्ताम्) = बचाएँ।

    भावार्थ

    विषयों में अतिप्रसक्ति से रोग उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। इन रोगों को उचित औषध-प्रयोग से दूर किया जाए।

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    भाषार्थ

    (देवेषितात्) [दोषयुक्त] इन्द्रियों तथा दूषित जल-वायु-अन्न से प्रेषित हुए, भेजे गए प्रेरित हुये। (यक्ष्मात्) यक्ष्म से (इमम्) इस (पुरुषं) पुरुष को (अघि त्रायन्ताम्) वे सुरक्षित करें। (वीरुधाम्) विविध प्रकार की पैदा हुईं ओषधियां (यासाम्) जिन का कि (पिता) उत्पादक (द्यौः) द्युलोक है, (माता) माता (पृथिवी) पृथिवी है, और (मूलम्) मूल (समुद्रः बभूव) समुद्र हुआ है।

    टिप्पणी

    [देव = इन्द्रियां तथा प्राकृतिक तत्त्व। ये जब दूषित हो जाते हैं तो यक्ष्म आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। दूषित = प्रेषित। वीरुधाम् = वि + रुह (जन्मनि प्रादुर्भावे च)। विविध प्रकार की उत्पन्न लताएं, ओषधियां, वनस्पतियाँ। समुद्रः = अर्थात् जो जलप्राय प्रदेशों या समुद्र में समीपवर्ती प्रदेशों में उत्पन्न हुई हैं]।

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    विषय

    औषधि विज्ञान।

    भावार्थ

    (यासाम्) जिन (वीरुधाम्) लताओं या वृक्ष वनस्पति आदि ओषधियों का (द्यौः) सूर्य (पिता) पालक है अर्थात् जिनकी धूप लगने से रक्षा होती है, (पृथिवी माता) पृथिवी माता है अर्थात् जो पृथिवी से रस और पुष्टि प्राप्त करती हैं। और (समुद्रः) मेघ ही (मूलम्) उत्पन्न होने का कारण है अर्थात् वर्षाकाल में वर्षा के जल से जो उत्पन्न होती हैं वे ओषधियां (इमम्) इस (पुरुषम्) पुरुष की (देवेषितात्) विषय क्रीड़ा द्वारा प्राप्त हुए (यक्ष्मात्) रोग से या देव=मेघ या वर्षा काल में उत्पन्न (यक्ष्मात्) राजयक्ष्मा के रोग से (त्रायन्ताम्) रक्षा करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः ओषधयो देवता। १, ७, ९, ११, १३, १६, २४, २७ अनुष्टुभः। २ उपरिष्टाद् भुरिग् बृहती। ३ पुर उष्णिक्। ४ पञ्चपदा परा अनुष्टुप् अति जगती। ५,६,१०,२५ पथ्या पङ्क्तयः। १२ पञ्चपदा विराड् अतिशक्वरी। १४ उपरिष्टान्निचृद् बृहती। २६ निचृत्। २२ भुरिक्। १५ त्रिष्टुप्। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health and Herbs

    Meaning

    May these herbs save this man, this patient, this humanity, from debilitating and consumptive diseases caused by the course of nature. The father of these herbs is the sun in heaven, their mother is the earth, and the seed and root of these herbs is the ocean-like space and recuperative natural energy therein.

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    Translation

    May you save this man from the consumptive disease, sent by the bounties of Nature, O herbs, whose father is the sky, mother the earth, and the origin is ocean (atmospheric ocean).

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    Translation

    Let these herbaceous plants, the heaven is whose father, the earth whose mother and the firmament whose 1oot, deliver this man from consumption which is caused by over-absorption in the carnal and material! Pleasures.

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    Translation

    May the herbs, whose father is the Sun, their mother Earth, the water their root, deliver this man from consumption, born of lust.

    Footnote

    Father: The heat of the Sun nourishes the herbs. Mother: Herbs derive their juice and sustenance from Earth. Root: In rainy season, water makes the herbs grow. Excessive Sexual indulgence results in consumption.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(त्रायन्ताम्) रक्षन्तु (इमम्) प्रसिद्धम् (पुरुषम्) प्राणिनम् (यक्ष्मात्) अ० २।१०।५। राजरोगात् (देवेषितात्) दिवु मदे-अच्+इष गतौ-क्त। उन्मादात् प्राप्तात् (अधि) अधिकृत्य (द्यौष्पिता) छन्दसि वाऽप्राम्रेडितयोः। पा० ८।३।४९। विसर्जनीयस्य वा सकारः। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ३।२३।६ ॥

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