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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    गा॑य॒त्रेण॒ प्रति॑ मिमीते अ॒र्कम॒र्केण॒ साम॒ त्रैष्टु॑भेन वा॒कम्। वा॒केन॑ वा॒कं द्वि॒पदा॒ चतु॑ष्पदा॒क्षरे॑ण मिमते स॒प्त वाणीः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गा॒य॒त्रेण॑ । प्रति॑ । मि॒मी॒ते॒ । अ॒र्कम् । अ॒र्केण॑ । साम॑ । त्रैस्तु॑भेन । वा॒कम् । वा॒केन॑ । वा॒कम् । द्वि॒ऽपदा॑ । चतु॑:ऽपदा । अ॒क्षरे॑ण । मि॒म॒ते॒ । स॒प्त । वाणी॑: ॥१५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम्। वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाक्षरेण मिमते सप्त वाणीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गायत्रेण । प्रति । मिमीते । अर्कम् । अर्केण । साम । त्रैस्तुभेन । वाकम् । वाकेन । वाकम् । द्विऽपदा । चतु:ऽपदा । अक्षरेण । मिमते । सप्त । वाणी: ॥१५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (१) (गायत्रेण) गायत्र से (अर्कम्) अर्क को (प्रति मिमीते) प्रतिमान करता है, मापता है, ज्ञान करता है, परिमित करता है, प्राप्त करता है। (२) और (अर्केण साम) अर्क से साम को परिमित करता या मापता या ज्ञान करता है। (३) (त्रैष्टुभेन वाकम्) त्रैष्टुभ से ‘वाक’ को और (४) (वाकेन वाकम्) वाक वाक को प्रतिमान या मापन करता या ज्ञान करता है। और (५) (द्विपदा) दो पद के और (चतुष्पदा अक्षरेण) चारपद के अक्षरों से (सप्त वाणीः प्रति मिमते) सात प्रकार की वाणियों को मापते हैं। (१) ‘गायन्त्रेण अर्कम्’—गायत्रं पुरस्तादुक्तम्। अर्कः—अन्नं देवाः अर्क इति वदन्ति ता० १५। ३। २३॥ आदित्यो वा अर्कः। श० १०। ६। २। ६॥ अर्कश्चक्षुः तदसौ सूर्यः। अग्निरर्कः। श० २। ५। १। ४॥ स एषोऽग्निरर्को यत्पुरुषः। श० १०। ३। ४। ५॥ प्राणो वा अर्कः। वेत्थार्कमिति। पुरुषं हैव तदुवाच। वेत्थार्कपर्णे इति कर्णौ हैव तदुवाच। वेत्थार्कपुष्पे इत्यक्षिणी हैव तदुवाच। वेत्थार्ककौश्याविति नासिके हैव तदुवाच। वेत्थार्कसमुद्गकावित्योष्ठौ हैव तदुवाच। वेत्थार्कधाना दन्तान्हैव तदुवाच। वेत्थार्काष्ठीलाविति जिह्वां हैव तदुवाच। वेत्थार्कमूलम् इत्यन्नं हैव तदुवाच श० १०। ३। ४। ५॥ अन्नं वै देवा अर्क इति वदन्ति। रसमस्य पुष्पम्। तां० १५। ३। २३॥ वैदिक परिभाषा में अर्क शब्द से अन्न, आदित्य, चक्षु, अग्नि, जीव, परमपुरुष, प्राण और पुरुष या जीवात्मा कहे जाते हैं। “गायत्र से अर्क को पाता है, ज्ञान करता है, या मापता है” अर्थात् पृथ्वी से अन्न प्राप्त करता है, प्राण से आत्मा का ज्ञान करते हैं, आत्मा से परमात्मा का ज्ञान करते हैं इत्यादि योग्य योजनाएँ करनी चाहियें। (२) ‘अर्केण साम’—अर्कः पुरस्तादुक्तः। साम—स प्रजापति हैवं षोडशधा आत्मानं विकृत्य सार्धं समैत्। तद् यत्सार्धं समैत् तत् साम्नः सामत्वम्। जै० उ० १। ४८। ७॥ एष आदित्यः सर्वैर्लौकैः समः, तस्मादेष एव साम। जै० उ० १। १। २५॥ एतं पुरुषं छन्दोगा उपासते। एतस्मिन् हि इदं सर्वं समानम्। श० १०। ५। २। १०॥ तद् यत् सा च अमश्च तत् साम अभवत्। जै० उ० १। १३। ५॥ यद्वै तत्सा च अमश्च समवदताम् तत्साम्नः सामत्वं। गो० उ० ३। २०॥ सैव नाम ऋक् अमो नाम सा। गो० उ० ३। २०॥ प्राणो वाव अमः वाक् सा तत्साम। जै० उ० ४। २३। ३॥ प्राणो वै साम प्राणे हीमानि भूतानि सम्यञ्चि। श० १४। ८। १४। ३॥ तद् यदेतत्सर्वं वाचमेवाभिसमायति तस्माद्वागेव साम। जै० उ० १। ४०। ६॥ स्वर्गो लोकः सामवेदः ष० १५॥ साम वै देवानामन्नम्। तां० ६। ४। १३॥ साम्राज्यं वै साम। श० १२। ८। ३। २३॥ क्षत्र साम। १२। ८। ३। २३॥ संवत्सर एव साम। जै० उ० १। ३५। १॥ बन्धुमत्साम्०। णै० उ० ३। ६। ७॥ साम हि सत्याशीः। ता० ११। १०। १०॥ तयोः सदसतोः यत् सत् तत् साम तन् मनः, स प्राणः। जै० उ० १। ५३। २। धर्मः इन्द्रो राजा। तस्य देवा विशः। सामानि वेदः। श०। १३। १। ३। १४॥ वैदिक परिभाषा में साम शब्द से शोडशकल प्रजापति, सर्वलोकमय आदित्य परमेश्वर, सर्वोपास्य पुरुष, ऋग्वेद और सामवेद, प्राण और वाक् प्राण, स्वर्ग=मोक्षपद, देवों का अन्न=ज्ञान, क्षत्रबल, साम्राज्य, सत्, मनः प्राण, विद्वानों का ब्रह्म, ज्ञानमय उपासना काण्ड=सामवेद, इतने अभिप्राय लिये जाते हैं। ‘अर्क से साम’ का प्रतिमान, ज्ञान, मापन और प्राप्त किया जाता हैं अर्थात् अन्न से प्राण और मन प्राप्त किया जाता है, आदित्य से क्षात्रबल की उपमा है, आदित्य से ब्रह्म की उपमा है। अग्नि=जीव या आत्मा से पोडशकल प्रजापति का परिज्ञान किया जाता है, प्राण से वाणी उत्पन्न होती है, आत्मा से परमपद या परमात्मा प्राप्त होता है। ऋग्वेद से सामवेद का गान उत्पन्न होता है। इत्यादि नाना सत्य योजना करनी चाहिये। (३) ‘त्रैष्टुभेन वाकम्’ त्रैष्टुभः प्रागुक्तः। वाकम्—वाग् वै गीः श० ७। २। २। ५॥ वाग् वै धेनुः गो० पू० २। २१॥ वाक् सरस्वती। श० ७। ५। १। ३१॥ वाग् वै सरस्वती पावीरवी। ऐ० ३। ३७॥ अथ यत् स्फूर्जयन् वाचमिव वदन् दहति तदग्नेः सारस्वतं रूपम्। ऐ० ३। ३॥ सा वाक् ऊर्ध्वा उदातनोद् यदपां धारा संतता। ता० २०। १४। २॥ वाग् वै मनः समुद्रस्य चक्षुः। ता० ६। ४। ७॥ यदाहुः किं सहस्रम् इति इमे लोकाः इमे वेदाः अथो वाग् इति ब्रूयात्। ऐ० ६। १५॥ वाग् वै सिनीवाली। श० ६। ५। १। ९॥ वाग् वै सार्पराज्ञी। को० २७। ४॥ वाग् वै धिषणा श० ६। ५। ४। ५॥ वाग् वै राष्ट्री। ऐ० १। १९॥ वाग् इति पृथिवी जै० उ० ४। २२। ११॥ वाग् इति अन्तरिक्षम्। जै० उ० ४। २२। ११॥ वाग् वै विराट्। श० ३। ५। १। ३४॥ वाग् वै विश्वकर्मा ऋषिः वाचा हि इदं सर्वं कृतम्। श० ८। १। २। ९॥ महिषी हि वाक्। श० ६। ५। ३। ४॥ वाग् ऋक्। जै० उ० ४। २३। ४॥ वाग् हि शस्त्रम्। ऐ० ३। ४४॥ वाग् वा इन्द्रः, या वाक् सा अग्निः। गो० उ० ४। ११॥ वाग् हि अग्नेः स्वो महिमा। श० १। ४। २। १७॥ प्रजापतिर्हि वाक्। तै० १। ३। ४। ५॥ वाग् वै वायुः। तै० १। ८। ८। १॥ तस्याः वाचः प्राणः स्वरसः। जै० उ०। १। १। ७॥ मनसः एषा कुल्या यद् वाक्। जै० उ० १ । ५८। ३॥ अपरिमिततरमिव हि मनः परिमिततरेव हि वाक्। श० १। ४। ४। ७॥ मनो ह पूर्वं वाचः यदि मनसा अभिगच्छति तद्वाचा वदति। ता० १। १। १ । ३॥ वाग् यज्ञः। श० १। ५। २। ७॥ वज्र एव वाक्। ऐ० २। २१॥ वग् इति स्त्री। जै० उ० ४। २२। ११॥ वाचों वाव तौ स्तनौ सत्यानृते वाव ते। ए० ४। ९॥ इत्यादि। वैदिक परिभाषा के अनुसार वाक् शब्द से वाणी, धेनु, मेध, गर्जना, विद्युत्, वेद, सिनीवाली, पृथिवी, बुद्धि, राष्ट्रशक्ति, अन्तरिक्ष, विराट् विश्वकर्मा=परमात्मा, रानी, ऋग्वेद, अग्नि, प्रजापति=परमेश्वर, वायु, यज्ञ, वज्र, स्त्री इत्यादि पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं। त्रैष्टुभ से वाक् को प्राप्त किया जाता है, परिमित तथा ज्ञान किया जाता या मापा जाता है। अर्थात् अन्तरिक्ष से वायु परिमित है प्राण से वाणी उत्पन्न होती है. मन के भावों को वाणी परिमित करती है, वायु से वाक् या शब्द उत्पन्न होता है. राजा से राष्ट्रशक्ति परिमित है, राष्ट्रशक्ति से पृथिवी शासित है, द्यौ से पृथिवी परिमित है, इत्यादि योजनाएं स्पष्ट हैं। (४) ‘वाकेन वाकम्’—वाक इति प्रागुक्तम्। ‘वाणी से वाणी’ या वाक् से वाक् परिचित है अर्थात् वाक् से ये समस्त वेद प्राप्त हैं, परिमित हैं या वाणी द्वारा प्रजापति जाना जाता है। वाणी से यज्ञ होता है। वाणी से राष्ट्रशक्ति संचालित है वाणी से लोक तथा वेद सीमित, परिज्ञात एवं वर्णित हैं इत्यादि योजनाएं स्पष्ट हैं। (५) (द्विपदा चतुष्पदा अक्षरेण सप्तवाणीः मिमते) द्विपाद्, चतुष्पाद अक्षरों से सातों वाणियों को मापा जाता है अर्थात् अक्षरों की गणना से दो दो चरणों और चार चार चरणों से सात मुख्य छन्दों की रचना होती है। गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप् बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती, ये सात छन्द हैं। इसी प्रकार सात प्रतिछन्द, सात विच्छन्द गिने जाते हैं। जिनका संक्षिप्त विवरण साम की भूमिका सें स्पष्ट है। अथवा—द्विपदाः (ऋचः) पुरुषो द्विपदाः। तै० ३। ९। १२। ३॥ द्विपदा अयं पुरुषः। श० २। ३। ४। ६३॥ चतुष्पदाः पशवः। गो० उ० १ । ४॥ चतुष्पाद् वा ब्रह्म। छान्दो० उपनि०। कतमत्तदक्षरमिति यत्क्षरन्नाक्षीयतेति इन्द्रः। विराजो वा एतद् रूपं यदक्षरम्। तां ८ । ६। १४॥ अक्षयं वा नामैतत् तदक्षरं परोक्षम्। अर्थात् द्विपद् पुरुष और चतुष्पाद् ब्रह्म जो अक्षर अविनाशी है उनसे समस्त सातों वाणियों, सातों छन्दों का ज्ञान किया जाता है। या वे सातों छन्द आत्मा परमात्मा के वाचक हैं। जैसा गायत्र, त्रैष्टुभ, जगती आदि की विवेचना में दर्शाया है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। गौः, विराड् आत्मा च देवताः। १, ७, १४, १७, १८ जगत्यः। २१ पञ्चपदा शक्वरी। २३, २४ चतुष्पदा पुरस्कृतिर्भुरिक् अतिजगती। २, २६ भुरिजौ। २, ६, ८, १३, १५, १६, १९, २०, २२, २५, २७, २८ त्रिष्टुभः। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्॥

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