अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 26
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
त्रयः॑ के॒शिन॑ ऋतु॒था वि च॑क्षते संवत्स॒रे व॑पत॒ एक॑ एषाम्। विश्व॑म॒न्यो अ॑भि॒चष्टे॒ शची॑भि॒र्ध्राजि॒रेक॑स्य ददृशे॒ न रू॒पम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्रय॑: । के॒शिन॑:। ऋ॒तु॒ऽथा । वि । च॒क्ष॒ते॒ । स॒म्ऽव॒त्स॒रे । व॒प॒ते॒ । एक॑: । ए॒षा॒म् । विश्व॑म् । अ॒न्य: । अ॒भि॒ऽचष्टे॑ । शची॑भि: । ध्राजि॑: । एक॑स्य । द॒दृ॒शे॒ । न । रू॒पम् ॥१५.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम्। विश्वमन्यो अभिचष्टे शचीभिर्ध्राजिरेकस्य ददृशे न रूपम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्रय: । केशिन:। ऋतुऽथा । वि । चक्षते । सम्ऽवत्सरे । वपते । एक: । एषाम् । विश्वम् । अन्य: । अभिऽचष्टे । शचीभि: । ध्राजि: । एकस्य । ददृशे । न । रूपम् ॥१५.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 26
विषय - आत्मा और परमात्मा का ज्ञान।
भावार्थ -
(त्रयः) तीन (केशिनः) केशी, तेजस्वी पदार्थ (ऋतुथा) ऋतु काल के अनुसार (वि चक्षते) दिखाई देते हैं या इस विश्व को देखते हैं. उसपर अपनी दृष्टि रखते हैं। (एषाम्) इनमें से (एकः) एक (संवत्सरे) वर्ष भर (वपते) ओषधि आदि वनस्पतियों के बीज वपन करता है। (अन्यः) दूसरा विश्व को (अभिचष्ट) प्रकाशित करता है, देखता है, रक्षा करता है। और (एकस्य) एक की (ध्राजिः) संहारकारी प्रबलगति (ददृशे) देखी जाती है, (रूपं न) उसका रूप नहीं दिखाई देता।
सृष्टि, स्थिति तथा संहार ये ईश्वर की तीनों शक्तियां यहां तीन केशी हैं वे यथाकाल अपना कार्य करती हैं एक शक्ति समस्त प्राणियों, वनस्पतियों या लोकों को उत्पन्न करती, दूसरी पालन करती और तीसरी संहार करती है। भौतिक पक्ष में अग्नि, आदित्य और वायु अथवा मेघ, आदित्य और वायु हैं।
टिप्पणी -
(तृ०) ‘विश्वमेको’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। गौः, विराड् आत्मा च देवताः। १, ७, १४, १७, १८ जगत्यः। २१ पञ्चपदा शक्वरी। २३, २४ चतुष्पदा पुरस्कृतिर्भुरिक् अतिजगती। २, २६ भुरिजौ। २, ६, ८, १३, १५, १६, १९, २०, २२, २५, २७, २८ त्रिष्टुभः। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्॥
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