अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - जगती
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
अ॒यं स शि॑ङ्क्ते॒ येन॒ गौर॒भीवृ॑ता॒ मिमा॑ति मा॒युं ध्व॒सना॒वधि॑ श्रि॒ता। सा चि॒त्तिभि॒र्नि हि च॒कार॒ मर्त्या॑न्वि॒द्युद्भव॑न्ती॒ प्रति॑ व॒व्रिमौ॑हत ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । स: । शि॒ङ्क्ते॒ । येन॑ । गौ: । अ॒भिऽवृ॑ता । मिमा॑ति । मा॒युम् । ध्व॒सनौ॑ । अधि॑ । श्रि॒ता । सा । चि॒त्तिऽभि॑: । नि । हि । च॒कार॑ । मर्त्या॑न् । वि॒ऽद्युत् । भव॑न्ती । प्रति॑ । व॒व्रिम् । औ॒ह॒त॒ ॥१५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं स शिङ्क्ते येन गौरभीवृता मिमाति मायुं ध्वसनावधि श्रिता। सा चित्तिभिर्नि हि चकार मर्त्यान्विद्युद्भवन्ती प्रति वव्रिमौहत ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । स: । शिङ्क्ते । येन । गौ: । अभिऽवृता । मिमाति । मायुम् । ध्वसनौ । अधि । श्रिता । सा । चित्तिऽभि: । नि । हि । चकार । मर्त्यान् । विऽद्युत् । भवन्ती । प्रति । वव्रिम् । औहत ॥१५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
विषय - आत्मा और परमात्मा का ज्ञान।
भावार्थ -
(अयम्) यह मेघ जो ध्वनि करता है (सः) वही परमात्मा प्रजापति (शिङ्क्ते) ध्वनि करता है। (येन) जिल से (अभीवृता) घिरी हुई (गौ:) मध्यम लोक की वाणी (मायुम्) मायु=शब्द को (मिमाति) करती है और वह (ध्वसनौ) मेघ में (अधिश्रिता) आश्रय लिये रहती हैं। (सा) वह (चित्तिभिः) नाना क्रियाओं से (मर्त्यान्) मनुष्यों को (हि) निश्चय से (नि चकार) उपकार करती है। और (विद्युत् भवन्ती) वह विद्युत् रूप में प्रकट होती हुई (वव्रिम्) रूप को (प्रति औहत) प्राप्त होती है।
ब्रह्मपक्ष में—(अयं सः शिङ्ङ्क्ते) यह वही परमात्मा वेदमय ज्ञान का उपदेश करता है (येन गौः अभीवृता) जिसने समस्त ज्ञानमय वाणी को अपने में धारण किया है। वही (मायुं सिमाति) ज्ञानमय वेद-वाणी की रचना करता है। यह वेदवाणी (ध्वसनौ अधिश्रिता) समस्त संसार के ध्वंस प्रलय के करनेहारे परमात्मा में वा प्रलयकाल में भी आश्रित रहती है। (सा) वह वेद-वाणी ही (चित्तिभिः) नाना प्रज्ञानों और कर्मों के उपदेशों से (मर्त्यान् नि चकार) सब मरणधर्मा प्राणियों को सब कार्यों के करने में समर्थ करती है। और वही (विद्युत् भवन्ती) विशेष रूप से पदार्थों के द्योतन-प्रकाशन करने में समर्थ होकर (वव्रिम्) प्रत्येक रूपवान् पदार्थ को या ज्ञान को (प्रत्यौहत) धारण करती है।
शास्त्रयोनित्वात्। वेदान्तसूत्र। १। ३॥ न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाद् ऋते॥
परमात्मा वेद का परम कारण है। और कोई ऐसा ज्ञान नहीं जो शब्दज्ञान के बिना हो।
टिप्पणी -
(तृ०) ‘चकार भर्त्यं’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। गौः, विराड् आत्मा च देवताः। १, ७, १४, १७, १८ जगत्यः। २१ पञ्चपदा शक्वरी। २३, २४ चतुष्पदा पुरस्कृतिर्भुरिक् अतिजगती। २, २६ भुरिजौ। २, ६, ८, १३, १५, १६, १९, २०, २२, २५, २७, २८ त्रिष्टुभः। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्॥
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