अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
गौर॑मीमेद॒भि व॒त्सं मि॒षन्तं॑ मू॒र्धानं॒ हिङ्ङ॑कृणोन्मात॒वा उ॑। सृक्वा॑णं घ॒र्मम॒भि वा॑वशा॒ना मिमा॑ति मा॒युं पय॑ते॒ पयो॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठगौ: । अ॒मी॒मे॒त् । अ॒भि । व॒त्सम् । मि॒षन्त॑म् । मू॒र्धान॑म् । हिङ् । अ॒कृ॒णो॒त् । मात॒वै । ऊं॒ इति॑ । सृका॑णम् । घ॒र्मम् । अ॒भि । वा॒व॒शा॒ना । मिमा॑ति । मा॒युम् । पय॑ते । पय॑:ऽभि: ॥१५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
गौरमीमेदभि वत्सं मिषन्तं मूर्धानं हिङ्ङकृणोन्मातवा उ। सृक्वाणं घर्ममभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः ॥
स्वर रहित पद पाठगौ: । अमीमेत् । अभि । वत्सम् । मिषन्तम् । मूर्धानम् । हिङ् । अकृणोत् । मातवै । ऊं इति । सृकाणम् । घर्मम् । अभि । वावशाना । मिमाति । मायुम् । पयते । पय:ऽभि: ॥१५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
विषय - आत्मा और परमात्मा का ज्ञान।
भावार्थ -
(गौः) जिस प्रकार गौ (मिषन्तं वत्सं अभि) उत्सुकता के कारण छटपटाते या अनिमेष वृत्ति से देखते हुए बछड़े के प्रति (अमीमेत्) हंभारती है और जिस प्रकार (मातवै उ) बछड़ा भी माता के लिये अपने (मूर्धानम्) शिंर को (हिङ् अकृणोत्) हिंकार के शब्द से उत्सुकता से हिलाता और हंभारता है उसी प्रकार यह प्रजापति की परम वाणी मेघमग्री (सृक्वाणं) अपने सर्जन करने वाले (घर्मं) अति तेजस्वी सूर्य के प्रति (वावशाना) अति कामनायुक्त होकर शब्द करती या गर्जती हुई (मायुम्) घनघोर शब्द (मिमाति) करती है और स्वयं (पयोभिः) अपने जल वर्षणों द्वारा (पयते) रसों का पान कराती है। अध्यात्म में—गौ=सर्वव्यापक ब्रह्मशक्ति (मिषन्तं वत्सं) अति उत्कण्ठित जीव के प्रति अपना (अमीमेद्) ज्ञान प्रदान करती या अनाहत नाद उत्पन्न करती है और वह जीवात्मा भी अपने (मातवै) माता के समान प्रेमी परमात्मा के लिये अपने शिरोभाग द्वारा (हिङ् कृणोति) उत्सुकता प्रकट करता है। वह ब्रह्ममयी ऋतम्भरा अपने (धर्मं सृक्वाणं वावशाना) तेजोमय स्रष्टा के प्रति कामना करती हुई (मायुं मिमाति) शब्द या परमज्ञान उत्पन्न करती और (पयोभिः पयते) आनन्दमय अमृतों से तृप्त करती है।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘अनुवत्सं’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। गौः, विराड् आत्मा च देवताः। १, ७, १४, १७, १८ जगत्यः। २१ पञ्चपदा शक्वरी। २३, २४ चतुष्पदा पुरस्कृतिर्भुरिक् अतिजगती। २, २६ भुरिजौ। २, ६, ८, १३, १५, १६, १९, २०, २२, २५, २७, २८ त्रिष्टुभः। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्॥
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