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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    70

    गौर॑मीमेद॒भि व॒त्सं मि॒षन्तं॑ मू॒र्धानं॒ हिङ्ङ॑कृणोन्मात॒वा उ॑। सृक्वा॑णं घ॒र्मम॒भि वा॑वशा॒ना मिमा॑ति मा॒युं पय॑ते॒ पयो॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गौ: । अ॒मी॒मे॒त् । अ॒भि । व॒त्सम् । मि॒षन्त॑म् । मू॒र्धान॑म् । हिङ् । अ॒कृ॒णो॒त् । मात॒वै । ऊं॒ इति॑ । सृका॑णम् । घ॒र्मम् । अ॒भि । वा॒व॒शा॒ना । मिमा॑ति । मा॒युम् । पय॑ते । पय॑:ऽभि: ॥१५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गौरमीमेदभि वत्सं मिषन्तं मूर्धानं हिङ्ङकृणोन्मातवा उ। सृक्वाणं घर्ममभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गौ: । अमीमेत् । अभि । वत्सम् । मिषन्तम् । मूर्धानम् । हिङ् । अकृणोत् । मातवै । ऊं इति । सृकाणम् । घर्मम् । अभि । वावशाना । मिमाति । मायुम् । पयते । पय:ऽभि: ॥१५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (गौः) ब्रह्मवाणी ने (मिषन्तम्) आँखें मींचे हुए (वत्सम्) निवासस्थान [संसार] को (अभि) सब ओर (अमीमेत्) फैलाया और (मूर्धानम्) [लोकों से] बन्धन रखनेवाले [मस्तकरूप सूर्य] को (मातवै) बनाने के लिये (उ) निश्चय करके (हिङ्) तृप्ति कर्म (अकृणोत्) बनाया। वह [ब्रह्मवाणी] (सृक्काणम्) सृष्टिकर्ता (घर्मम्) प्रकाशमान [परमात्मा] की (अभि) सब ओर से (वावशाना) अति कामना करती हुई (मायुम्) शब्द (मिमाति) करती है और (पयोभिः) अनेक बलों के साथ (पयते) चलती है ॥६॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने प्रलय में लीन संसार को रचकर सूर्य आदि लोकों को परस्पर आकर्षण में ऐसा बनाया, जैसे मस्तक और धड़ होते हैं और उसी ब्रह्म शक्ति द्वारा प्राणियों को सब प्रकार का बल मिलता है ॥६॥ इस मन्त्र के उत्तर भाग का मिलान करो-अ० ९।१।८। (अभि) के स्थान पर [अनु] है−ऋ० १।१६४।२८। तथा निरु० ११।४२ ॥

    टिप्पणी

    ६−(गौः) गौर्वाक्-निघ० १।११। ब्रह्मवाणी (अमीमेत्) अ० ९।९।९। डुमिञ् प्रक्षेपणे-लङ्। अमिनोत्। विस्तारितवती (अभि) सर्वतः (वत्सम्) वस निवासे-स। निवासस्थानं संसारम् (मिषन्तम्) मिष स्पर्धायाम्-शतृ। चक्षुर्मीलनं कुर्वन्तम्। प्रलये वर्तमानम् (मूर्धानम्) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। मुर्वी बन्धने-कनिन्, उकारस्य-दीर्घः, वस्य धः। लोकानां बन्धकमाकर्षकं मस्तकरूपं सूर्यम् (हिङ्) अ० ९।६(५)।१। हिवि प्रीणने−क्विन्। तृप्तिकर्म (अकृणोत्) कृतवती (मातवै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० –३।४।९। माङ् माने शब्दे-च-तवै। निर्मातुम् (उ) एव (सृक्वाणम्) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ० ४।११४। सृज विसर्गे-क्वनिप्। चोः कुः। वा० ८।२।३०। कुत्वम्। स्रष्टारम् (घर्मम्) अ० ४।१।२। घृ सेचनदीप्त्योः-मक्। प्रकाशमानं परमात्मानम्। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ९।१।८ ॥

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    विषय

    गौः, अमीमेत्

    पदार्थ

    १. (गौ:) = यह वेदवाणीरूप गौ (मिषन्तम्) = [मिष 10 look at] ध्यान से देखते हुए (वत्सम् अभि) = उच्चारण करनेवाले के प्रति (अमीमेत) = शब्द करती है-बोलती है। यदि हम इस वेदवाणी को ध्यान से देखेंगे और इसे पढ़ेंगे तो यह हमारे प्रति बोलेगी, अर्थात् यह हमें अवश्य समझ में आएगी। यह वेदमाता ध्यान से पढ़नेवाले के (मूर्धानम्) = मस्तिष्क को (हिंकृणोत्) = ज्ञान की किरणों से जगमग कर देती है [रश्मयो वै हिंकारः] । इसलिए इसके मस्तिष्क को ज्ञानपूर्ण करती है कि मातवा उ-यह उत्तम ज्ञानी बनकर निर्माण का कार्य कर सके। २. (सृक्वाणम्) = [सज उत्पन्न करना] उत्पादक (घर्मम्) = तेज को (अभिवावशाना) = पाठक के लिए चाहती हुई, यह वेदवाणी अपने पाठक को (मायुम्) = [माया-ज्ञान] ज्ञानवाला (मिमाति) = बनाती है। एवं, वेदज्ञ विद्वान् ध्वंस के साधनों को नहीं अपितु निर्माण के लिए उपयोगी वस्तुओं को ही आविष्कृत करता है। इसप्रकार यह वेदवाणी (पयोभिः) = अपने ज्ञानरूपी दुग्ध से (पयते) = अपने पाठक को आप्यायित करती है। यदि व्यक्ति इस वेदवाणी का ध्यान से पाठ करता है, तो यह उसका प्रतिफल ज्ञानरूप दूध से देती है।

    भावार्थ

    यदि हम वेदवाणी को ध्यान से पढ़ेंगे तो यह अवश्य समझ में आएगी। समझ में आने पर यह हमें निर्माण में प्रवृत्त करेगी। इस प्रवृत्ति के साथ हममें उत्पादन की शक्ति भी होगी और हम उत्पादन-शक्ति से इस संसार को अवश्य सुन्दर बना पाएँगे।

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    भाषार्थ

    (गौः) चतुष्पाद् गौ (मिषन्तम्, वत्सम्, अभि) आंखे झपकते हुए बछड़े को लक्ष्य कर के (अमीमेत्) शब्द करती है, और (मातवै उ) उस के परिज्ञान के लिये (मूर्धानम्) उस के सिर पर (हिं अकृणोत्) हिंकारती है, हम्भारती है। (सृक्वाणम्) सरण करने वाले (घर्मम् अभि) धारोष्ण दूध को लक्ष्य कर के (मायुम्) शब्द (मिमाति) करती है, (वावशाना) बार-बार शब्द करती है, (पयोभिः) और स्तनों में दूध के साथ (पयते) विचरती है।

    टिप्पणी

    [मिषन्तं वत्सम्= इस द्वारा बछड़ की शैशवावस्था को सूचित किया है। मातवै= उसे जताने के लिये कि मैं आ गई हूं, उसके सिर पर हम्भारती है। मा= ज्ञान, यथा प्रमा। सृक्वाणम्= सरणम् (निरुक्त ११।४।४१), अथवा "सृज विसर्गे" + क्वनिप्= उत्पन्नं घर्मम्। वावशाना= वाशृ शब्दे + कानच्। पयते= पय गतौ (भ्वादिः)। हिङ् अकृणोत्= इस द्वारा सामगान को भी सूचित किया है। जिस में ज्ञान चक्षु का उन्मेष हुआ है ऐसे स्वाध्यायी के प्रति वेदवाणी निजस्वरूप को प्रकट करती है, और उस के परिज्ञान के लिये “हिङ्" आदि अवयवों वाले सामगान को प्रकट करती है। उसका दूध है ज्ञानदुग्ध। यथा “उत त्वं सख्ये स्थिरपीतमाहुः" (ऋक्० १०।७१।५) में वेदवाणी रूपी गौ के ज्ञानदुग्ध को "पीतम्" शब्द द्वारा निर्दिष्ट किया है। “पयोभिः” द्वारा भी ज्ञानदुग्ध अभिप्रेत है। चतुष्पाद् गौ के चार स्तनों द्वारा दुग्ध प्रस्रवित होता है, वेदवाणी के भी ४ वेदरूपी स्तनों द्वारा ज्ञान दुग्ध प्रस्रावित होता है।]

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    विषय

    आत्मा और परमात्मा का ज्ञान।

    भावार्थ

    (गौः) जिस प्रकार गौ (मिषन्तं वत्सं अभि) उत्सुकता के कारण छटपटाते या अनिमेष वृत्ति से देखते हुए बछड़े के प्रति (अमीमेत्) हंभारती है और जिस प्रकार (मातवै उ) बछड़ा भी माता के लिये अपने (मूर्धानम्) शिंर को (हिङ् अकृणोत्) हिंकार के शब्द से उत्सुकता से हिलाता और हंभारता है उसी प्रकार यह प्रजापति की परम वाणी मेघमग्री (सृक्वाणं) अपने सर्जन करने वाले (घर्मं) अति तेजस्वी सूर्य के प्रति (वावशाना) अति कामनायुक्त होकर शब्द करती या गर्जती हुई (मायुम्) घनघोर शब्द (मिमाति) करती है और स्वयं (पयोभिः) अपने जल वर्षणों द्वारा (पयते) रसों का पान कराती है। अध्यात्म में—गौ=सर्वव्यापक ब्रह्मशक्ति (मिषन्तं वत्सं) अति उत्कण्ठित जीव के प्रति अपना (अमीमेद्) ज्ञान प्रदान करती या अनाहत नाद उत्पन्न करती है और वह जीवात्मा भी अपने (मातवै) माता के समान प्रेमी परमात्मा के लिये अपने शिरोभाग द्वारा (हिङ् कृणोति) उत्सुकता प्रकट करता है। वह ब्रह्ममयी ऋतम्भरा अपने (धर्मं सृक्वाणं वावशाना) तेजोमय स्रष्टा के प्रति कामना करती हुई (मायुं मिमाति) शब्द या परमज्ञान उत्पन्न करती और (पयोभिः पयते) आनन्दमय अमृतों से तृप्त करती है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘अनुवत्सं’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। गौः, विराड् आत्मा च देवताः। १, ७, १४, १७, १८ जगत्यः। २१ पञ्चपदा शक्वरी। २३, २४ चतुष्पदा पुरस्कृतिर्भुरिक् अतिजगती। २, २६ भुरिजौ। २, ६, ८, १३, १५, १६, १९, २०, २२, २५, २७, २८ त्रिष्टुभः। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    The holy Cow goes to the calf winking its eyes in loving expectation, lowing with love, and licks its head with caress. And lowing and loving more and more in response to the yearning affection of the calf, she overflows with the milk of life. (This same is the response of Mother Earth and Mother Sarasvati to her children yearning for love, nourishment and knowledge.)

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    Translation

    The cow lows standing by the calf with eyes half-closed, and caresses the calf with affection, licking the forehead; she conveys her warm udders to the mouth of the calf: she bellows and feeds the calf with her milk. (Also Rg. I.164.28)

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    Translation

    As a cow yearning in spirit for her calf lows and as the calf raising its head towards mother lows in response, so the lightning in the cloud desiring to the sun which creates it makes thundering sound and pours with the water.

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    Translation

    The All-pervading power of God bestows knowledge on the anxious soul. The soul also expresses restlessness in 'itself for God, a Lover like mother. The God-given fine intellect, longing for the Refulgent God, acquires excellent knowledge, and satisfies us with everlasting pleasures.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(गौः) गौर्वाक्-निघ० १।११। ब्रह्मवाणी (अमीमेत्) अ० ९।९।९। डुमिञ् प्रक्षेपणे-लङ्। अमिनोत्। विस्तारितवती (अभि) सर्वतः (वत्सम्) वस निवासे-स। निवासस्थानं संसारम् (मिषन्तम्) मिष स्पर्धायाम्-शतृ। चक्षुर्मीलनं कुर्वन्तम्। प्रलये वर्तमानम् (मूर्धानम्) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। मुर्वी बन्धने-कनिन्, उकारस्य-दीर्घः, वस्य धः। लोकानां बन्धकमाकर्षकं मस्तकरूपं सूर्यम् (हिङ्) अ० ९।६(५)।१। हिवि प्रीणने−क्विन्। तृप्तिकर्म (अकृणोत्) कृतवती (मातवै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० –३।४।९। माङ् माने शब्दे-च-तवै। निर्मातुम् (उ) एव (सृक्वाणम्) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ० ४।११४। सृज विसर्गे-क्वनिप्। चोः कुः। वा० ८।२।३०। कुत्वम्। स्रष्टारम् (घर्मम्) अ० ४।१।२। घृ सेचनदीप्त्योः-मक्। प्रकाशमानं परमात्मानम्। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ९।१।८ ॥

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