अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
53
अ॒नच्छ॑ये तु॒रगा॑तु जी॒वमेज॑द्ध्रु॒वं मध्य॒ आ प॒स्त्यानाम्। जी॒वो मृ॒तस्य॑ चरति स्व॒धाभि॒रम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒नत् । श॒ये॒ । तु॒रऽगा॑तु । जी॒वम् । एज॑त् । ध्रु॒वम् । मध्ये॑ । आ । प॒स्त्या᳡नाम् । जी॒व: । मृ॒तस्य॑ । च॒र॒ति॒ । स्व॒धाभि॑: । अम॑र्त्य: । मर्त्ये॑न । सऽयो॑नि: ॥१५.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अनच्छये तुरगातु जीवमेजद्ध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम्। जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः ॥
स्वर रहित पद पाठअनत् । शये । तुरऽगातु । जीवम् । एजत् । ध्रुवम् । मध्ये । आ । पस्त्यानाम् । जीव: । मृतस्य । चरति । स्वधाभि: । अमर्त्य: । मर्त्येन । सऽयोनि: ॥१५.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(जीवम्) जीव को (अनत्) प्राण देता हुआ और (एजत्) चेष्टा कराता हुआ, (तुरगातु) शीघ्रगामी, (ध्रुवम्) निश्चल [ब्रह्म] (पस्त्यानाम्) घरों के (मध्ये) मध्य में (आ) सब ओर से (शये) सोता है [वर्तमान है]। (मृतस्य) मरण स्वभाववाले [शरीर] का (अमर्त्यः) अमरणस्वभाववाला (जीवः) जीव [आत्मा] (मर्त्येन) मरण धर्मवाले [जगत्] के साथ (सयोनिः) एकस्थानी होकर (स्वधाभिः) अपनी धारणशक्तियों से (चरति) चलता रहता है ॥८॥
भावार्थ
मन से अधिक वेगवाला [यजु० ४०।४] सर्वव्यापक ब्रह्म सब में वर्तमान रहकर जीवात्मा को उसके कर्मानुसार संसार के भीतर शरीरधारण करा के पुण्य-पाप का फल देता है ॥८॥
टिप्पणी
८−(अनत्) अन्तर्गतण्यर्थः। प्राणयत् (शये) तलोपः। शेते। वर्तते (तुरगातु) कमिमनिजनिगा०। उ० १।७३। गाङ् गतौ गै शब्दे वा-तु। शीघ्रगामि ब्रह्म। मनसो जवीयः-यजु० ४०।४। (जीवम्) जीवात्मानम् (एजत्) एजयत्। कम्पयत् (ध्रुवम्) निश्चलम् (मध्ये) (आ) समन्तात् (पस्त्यानाम्) जनेर्यक्। उ० ४।१११। पस बाधे ग्रन्थे च-यक्, तुगागमः, यद्वा पत्लृ गतौ-यक्, सकार उपजनः। गृहाणाम्-निघ० ३।४। (जीवः) जीवात्मा (मृतस्य) मरणस्वभावस्य शरीरस्य (चरति) गच्छति (स्वधाभिः) अ० २।२९।७। स्व+डुधाञ् धारणपोषणदानेषु−क्विप्। आत्मधारणशक्तिभिः (अमर्त्यः) अमरणस्वभावः (मर्त्येन) मरणधर्मेण संसारेण सह (सयोनिः) समानस्थानः ॥
विषय
जीव 'शरीर में व शरीर के बाहर'
पदार्थ
१. यह जीव (पस्त्यानां मध्ये) = इन शरीररूप गृहों के बीच में (अनत्) = श्वासोच्छास की क्रिया को चलाता हुआ (आशये) = निवास करता है। प्राणों का कार्य तभी तक चलता है, जब तक इस शरीर में जीव का निवास है। (तुरगातु) = यह तूर्णगमन है-बड़ी तीव्रता से सब व्यापारों को करनेवाला है। एक ही सैकिण्ड में कितनी ही आकृतियों को देख जाता है। (जीवम) = इसी के कारण शरीर जीवनवाला कहाता है। यह गया और देह निर्जीव हुई। (एजत्) = यही सब अङ्ग प्रत्यङ्गों को गतिवाला करता है। इस प्राकृतिक अतएव जड़ शरीर में स्वयं गति नहीं। (ध्रुवम्) = यह आत्मा ध्रुव है। यह ध्रुव आत्मा ही इस पिण्ड को गतिमय बनाता है। २. (मृतस्य) = इस मृत त्यक्त-प्राण शरीर का (जीव:) = जिलानेवाला आत्मा (स्वधाभि:) = अपनी धारक शक्तियों के द्वारा चरति ब्रह्म के साथ इस वायु में विचरता है [अयं वै यमः योऽयं पवते]-यमलोक, अर्थात् वायुलोक में जाता है। यह (अमर्त्यः) = अमरणधर्मा होता हुआ भी (मयेन सयोनि:) = इस मर्त्य शरीर के साथ समान योनिवाला होता है। सामान्य भाषा में इसे 'पैदा होता हुआ और मरता हुआ' कह देते हैं।
भावार्थ
इस शरीर के साथ होता हुआ यह जीव प्राण धारण करता हुआ, विविध अङ्ग प्रत्यङ्गों को गति देता हुआ शीघ्रता से कार्य करता है। मृत शरीर को छोड़कर यह अपनी धारण शक्तियों के साथ यमलोक [वायुलोक] में विचरता है।
भाषार्थ
(तुरगातु) शीघ्रगति वाला ब्रह्म (ध्रुवम्) निश्चल (जीवम्, अनत्) जीवात्मा को प्राणित करता हुआ, (एजत्) और उसे गतिमान करता हुआ, (पस्त्यानाम्, मध्ये) शरीर-गृहों के मध्य में (आशये) सोता है। (मृतस्य) मरे व्यक्ति का (अमर्त्यः जीवः) नित्य जीवात्मा (स्वधाभिः) स्वनिहित संस्कारों सहित, (मर्त्येन) मर्त्य सूक्ष्म शरीर के साथ, (सयोनिः) समान योनि हुआ (चरति) मातृगर्भो में जाता है।
टिप्पणी
[ब्रह्म तुरगातु है। यथा “मनसो जवीयः" (यजु० ४०।४) अनत्, एजत्= णिजर्थ अन्तर्भावित है। पस्त्यं गृहनाम (निघं० ३।४) जीवः= जीव प्राण धारणे (भ्वादिः) प्राण सहित आत्मा, जीवात्मा। “स्वधा" द्वारा सूक्ष्मशरीरनिष्ठ संस्कारों का निर्देश किया है। शये=शेते, "लोपस्त आत्मनेपदेषु" (अष्टाध्यायी) द्वारा “त्" का लोप हुआ। “शये” के लिये देखो (अथर्व० १०।८।२६)]।
विषय
आत्मा और परमात्मा का ज्ञान।
भावार्थ
(पस्त्यानाम्) समस्त गृहों, लोकों और प्रजाओं के (मध्ये) बीच में वह महान् परमेश्वर प्रभु (ध्रुवम्) नित्य, कूटस्थ होकर (दुजत्) सबको चलाता हुआ (जीवम्) चेतनस्वरूप (तुरगातु) अति तीव्र गति से सर्वत्र व्यापक (अनत्) प्राणशक्ति का संचार करता हुआ (शये) सर्वत्र प्रशान्त रूप में, अव्यक्तरूप में व्यापक है। और (जीवः) यह जीवात्मा (अमृतस्य) उसी परम अमृत, मोक्षस्वरूप परमेश्वर के दिये अथवा (मृतस्य स्वाछामिः) मृत, गत देह के (स्वधाभिः) निज कर्मफलों से (चरति) नाना योनियों में फल भोगता हुआ विचरता है। वह जीवात्मा भी (अमर्त्यः) अपने अमरणधर्मा रह कर भी (मर्त्येन) इस मरणशील अनित्य देह के (सयोनिः) साथ रहने के कारण जन्म लेकर रहता है। इसलिये शरीर के धर्म आत्मा के साथ कहे जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। गौः, विराड् आत्मा च देवताः। १, ७, १४, १७, १८ जगत्यः। २१ पञ्चपदा शक्वरी। २३, २४ चतुष्पदा पुरस्कृतिर्भुरिक् अतिजगती। २, २६ भुरिजौ। २, ६, ८, १३, १५, १६, १९, २०, २२, २५, २७, २८ त्रिष्टुभः। अष्टाविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Spiritual Realisation
Meaning
Living and breathing, moving at the speed of infinity yet constant, omnipresent, unmoved, the Spirit of the universe abides eternal, impelling the individual soul to move among the multitude of material forms. And thus the immortal spirit of mortal man moves around in love and company with the mortal forms of material beauty by virtue of its karma and yajnic service.
Translation
The soul, endowed with life-breath and fast speed, goes out and the dead body is left behind in the house. The immortal soul, hitherto living in the mortal body, keeps on moving from life to life by its own nature. (Also Rg. I.164.30)
Translation
The infinite eternal Divinity which is speediest of all (being omnipresent) giving life to individual soul pervades in the objects of the world. The individual spirit which is immortal but assumes the mortal body, becoming nearest companion with mortal body limbs mind etc, moves in this world with its powers and the actions and impressions.
Translation
In the midst of all houses, worlds and men, the Everlasting God, putting all in motion, highly Conscious. Pervading everything swiftly, giving life and breath to all, invisibly exists everywhere. The soul, according to the dispensation of God, reaping the fruits of the deeds of past life, assumes different births. The immortal soul is the brother of the mortal body.
Footnote
Soul is the brother of the body as it dwells in, and exists with the body.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(अनत्) अन्तर्गतण्यर्थः। प्राणयत् (शये) तलोपः। शेते। वर्तते (तुरगातु) कमिमनिजनिगा०। उ० १।७३। गाङ् गतौ गै शब्दे वा-तु। शीघ्रगामि ब्रह्म। मनसो जवीयः-यजु० ४०।४। (जीवम्) जीवात्मानम् (एजत्) एजयत्। कम्पयत् (ध्रुवम्) निश्चलम् (मध्ये) (आ) समन्तात् (पस्त्यानाम्) जनेर्यक्। उ० ४।१११। पस बाधे ग्रन्थे च-यक्, तुगागमः, यद्वा पत्लृ गतौ-यक्, सकार उपजनः। गृहाणाम्-निघ० ३।४। (जीवः) जीवात्मा (मृतस्य) मरणस्वभावस्य शरीरस्य (चरति) गच्छति (स्वधाभिः) अ० २।२९।७। स्व+डुधाञ् धारणपोषणदानेषु−क्विप्। आत्मधारणशक्तिभिः (अमर्त्यः) अमरणस्वभावः (मर्त्येन) मरणधर्मेण संसारेण सह (सयोनिः) समानस्थानः ॥
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