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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    45

    जग॑ता॒ सिन्धुं॑ दि॒व्यस्कभायद्रथंत॒रे सूर्यं॒ पर्य॑पश्यत्। गा॑य॒त्रस्य॑ स॒मिध॑स्ति॒स्र आ॑हु॒स्ततो॑ म॒ह्ना प्र रि॑रिचे महि॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जग॑ता । सिन्धु॑म् । दि॒वि । अ॒स्क॒भा॒य॒त् । र॒थ॒म्ऽत॒रे । सूर्य॑म् । परि॑ । अ॒प॒श्य॒त् । गा॒य॒त्रस्य॑ । स॒म्ऽइध॑: । ति॒स्र: । आ॒हु॒: । तत॑: । म॒ह्ना । प्र । रि॒रि॒चे॒ । म॒हि॒ऽत्वा ॥१५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जगता सिन्धुं दिव्यस्कभायद्रथंतरे सूर्यं पर्यपश्यत्। गायत्रस्य समिधस्तिस्र आहुस्ततो मह्ना प्र रिरिचे महित्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जगता । सिन्धुम् । दिवि । अस्कभायत् । रथम्ऽतरे । सूर्यम् । परि । अपश्यत् । गायत्रस्य । सम्ऽइध: । तिस्र: । आहु: । तत: । मह्ना । प्र । रिरिचे । महिऽत्वा ॥१५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    उस [प्रजापति] ने (जगता) संसार के साथ (रथन्तरे) रमणीय पदार्थों के तरानेवाले (दिवि) आकाश में (सिन्धुम्) नदी [जल] और (सूर्यम्) सूर्य को (अस्कभायत्) थाँभा और (परि) सब ओर से (अपश्यत्) देखा। (गायत्रस्य) स्तुति योग्य ब्रह्म की (तिस्रः) तीनों [भूत, भविष्यत् और वर्तमान सम्बन्धी] (समिधः) प्रकाशशक्तियों को (आहुः) वे [ब्रह्मज्ञानी] बताते हैं, (ततः) उसी से उस [ब्रह्म] ने (महा) अपनी महिमा और (महित्वा) सामर्थ्य को [सब लोकों को] (प्र) अच्छे प्रकार (रिरिचे) संयुक्त किया ॥३॥

    भावार्थ

    त्रिकालज्ञ परमेश्वर ने मेघ, सूर्य और सब लोकों को अपने सामर्थ्य से रचा है ॥३॥ (अस्कभायत्) के स्थान पर [अस्थभायत्] है−ऋ० १।१६४।२५ ॥

    टिप्पणी

    ३−(जगता) संसारेण सह (सिन्धुम्) अ० ४।™३।१। नदीम् (दिवि) आकाशे (अस्कभायत्) स्तम्भितवान् (रथन्तरे) अ० ८।१०(२)।६। रमणीयानां लोकानां तारके (सूर्यम्) आदित्यमण्डलम् (परि) सर्वतः (अपश्यत्) दृष्टवान् (गायत्रस्य) म० १। स्तुत्यस्य ब्रह्मणः (समिधः) सम्यग् दीप्तीः प्रकाशशक्तीः (तिस्रः) भूतभविष्यद्वर्तमानैः सह सम्बद्धाः (आहुः) कथयन्ति (ततः) तस्मात् कारणात् (मह्ना) वर्णलोपश्छान्दसः। महिम्ना (प्र) प्रकर्षेण (रिरिचे) रिच वियोजनसम्पर्चनयोः-लिट्। लोकान् संयोजितवान् (महित्वा) अ० ४।२।२। महत्त्वेन सामर्थ्येन ॥

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    विषय

    रथन्तरे सूर्यम्

    पदार्थ

    १. (जगता) = उस सर्वगत, सर्वभूतान्तरात्मा [सर्व वा इदमात्मा जगत्] प्रभु के द्वारा उपासक (सिन्धुम्) = अपने ज्ञान-समुद्र को [वाग्वै समुद्रः-तां०६।४।७] (दिवि अस्कभायत्) = धुलोक में, अर्थात् सर्वोच्च शिखर पर थामता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने पर (रथन्तरे) = इस पृथिवी पर ही [इयं पृथिवी वै रथन्तरम्-को०३५], सूर्यम्-स्वर्ग को [एष आदित्यः स्वगों लोक:-तै० ३।८।१०।३] (परि अपश्यत्) = चारों ओर देखता है। ज्ञान निष्कामता को जन्म देता है, निष्कामता स्वर्ग को। ज्ञानवृद्धि से द्वेषशून्य होकर हम इस पृथिवी पर स्वर्ग को अवतीर्ण करनेवाले बनेंगे। २. 'गायत्र से उपासना, उपासना से शान्ति, शान्ति से ज्ञान' इस ज्ञानचक्र में ज्ञान-सिन्धु का आदिस्रोत गायत्र ही है। इस (गायत्रस्य) = यज्ञ की (समिधः) = समिन्धन-दीत करनेवाली वस्तुएँ (तिस्त्र: आहुः) = तीन कही गई हैं। 'माता, पिता, आचार्य, अतिथि व परमात्मा'-इन पाँच देवों का पूजन पहली समिधा है। इनके साथ मेल [संगतिकरण] दूसरी तथा इनके प्रति अर्पण तीसरी समिधा है। इस ज्ञानयज्ञ की अग्नि में शिष्य से डाली जानेवाली ये तीन समिधाएँ हैं। आचार्य से डाली जानेवाली समिधाओं का नाम 'पृथिवीस्थ पदार्थों का ज्ञान, अन्तरिक्षस्थ पदार्थों का ज्ञान तथा [लोकस्थ पदार्थों का ज्ञान' है। (तत्) = उस ज्ञान-प्राप्ति से ही मनुष्य (मह्ना) = बल के दृष्टिकोण से और (महित्वा) = महिमा के दृष्टिकोण से (प्ररिरिचे) = सभी को लाँघ जाता है। यही मनुष्य की महिमा है कि वह ज्ञान के द्वारा इस मर्त्यलोक को ही स्वर्गलोक बना दे।

    भावार्थ

    मनुष्य प्रभु की उपासना द्वारा सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान के द्वारा इस भू मण्डल को वह स्वर्ग बना देता है। इस ज्ञान-यज्ञ में 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक'-स्थ पदार्थों के ज्ञान की आहुति देता हुआ वह बल व महिमा के दृष्टिकोण से सभी को लाँघ जाता है।

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    भाषार्थ

    परमेश्वर ने (जगता) जगत् के साथ (सिन्धुम्) नदी, समुद्र को, तथा (दिवि) प्रकाश में और (रथन्तरे) अन्तरिक्ष में (सूर्यम्) सूर्य को (अस्कभायद्) थामा है, (पर्यपश्यत्) और इन सब का निरीक्षण करता है। तथा (गायत्रस्य) स्तुति गायक के त्राणकर्ता [परमेश्वर] की (तिस्रः)तीन (समिधः) समिधाएं अर्थात् प्रदीप्त पदार्थ,– अग्नि, विद्युत्, सूर्य सहित चमकते तारावर्ग हैं, (आहुः) यह कहते हैं, परन्तु परमेश्वर (ततः) उस सब से (प्ररिरिचे) अतिरिक्त है (महा, महित्वा) बड़प्पन और महिमा द्वारा, यह भी कहते हैं। (ऋ० १।१६४।२५)

    टिप्पणी

    [रथन्तरे= अन्तरिक्षे, रथों अर्थात् रमणीय विमानों द्वारा जिस में मानो तैरते हुए वैमानिक गति करते हैं। गायत्रस्य= गायतः त्रातुः (देखो "गायत्रे" मन्त्र १)]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    The Lord establishes the ocean of energy in the region of light by cosmic dynamics and Jagati hymns of Omnipotence. In the solar regions, over the middle regions of energy and on earth he establishes the sun, generative radiating source of light and energy, by the dynamics of Rathantara Samans. The blazing samits, orders of fire, cosmic energy, they say, are three: the sun in the regions of light, lightning, wind, and electricity in the middle regions, and fire and magnetic energy on the earth. And by His grand and adorable omnipotence, the Lord transcends them all.

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    Translation

    With the Jagati, i.e., jagata Saman the flood in, heaven has been established (by the Creator), and He saw the Sun in the Rathantara Siman. We are told that the Gayatra Saman had three logs (samidhah) (for burning) and hence it excels (ririce) in majesty and vigour (mahni and mahitva).

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    Translation

    The creator of the Universe established the ocean, the ocean of vapours in the heavenly region (the atmospheric ocean),He beheld the sun in the Rathantara Saman, these three resplendent objects of fire—{the fire, electricity and the sun) are three it is said by the learned men. Hence the Lord of the Universe excels in majesty, vigor and effulgence from all these.

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    Translation

    God, through His mobility hath established the Sun in heaven. A yogi visualizes in God, the Refulgent Light. The universe has got three blazing lights. God excels all in majesty and vigor.

    Footnote

    Three lights: Fire, Sun, lightning.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(जगता) संसारेण सह (सिन्धुम्) अ० ४।™३।१। नदीम् (दिवि) आकाशे (अस्कभायत्) स्तम्भितवान् (रथन्तरे) अ० ८।१०(२)।६। रमणीयानां लोकानां तारके (सूर्यम्) आदित्यमण्डलम् (परि) सर्वतः (अपश्यत्) दृष्टवान् (गायत्रस्य) म० १। स्तुत्यस्य ब्रह्मणः (समिधः) सम्यग् दीप्तीः प्रकाशशक्तीः (तिस्रः) भूतभविष्यद्वर्तमानैः सह सम्बद्धाः (आहुः) कथयन्ति (ततः) तस्मात् कारणात् (मह्ना) वर्णलोपश्छान्दसः। महिम्ना (प्र) प्रकर्षेण (रिरिचे) रिच वियोजनसम्पर्चनयोः-लिट्। लोकान् संयोजितवान् (महित्वा) अ० ४।२।२। महत्त्वेन सामर्थ्येन ॥

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