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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 27
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    72

    च॒त्वारि॒ वाक्परि॑मिता प॒दानि॒ तानि॑ विदुर्ब्राह्म॒णा ये म॑नी॒षिणः॑। गुहा॒ त्रीणि॒ निहि॑ता॒ नेङ्ग॑यन्ति तु॒रीयं॑ वा॒चो म॑नु॒ष्या वदन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒त्वारि॑ । वाक् । परि॑ऽमिता । प॒दानि॑ । तानि॑ । वि॒दु॒: । ब्रा॒ह्म॒णा: । ये । म॒नी॒षिण॑: । गुहा॑ । त्रीणि॑ । निऽहि॑ता । न । इ॒ङ्ग॒य॒न्ति॒ । तु॒रीय॑म् । वा॒च: । म॒नु॒ष्या᳡: । व॒द॒न्ति॒ ॥१५.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः। गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चत्वारि । वाक् । परिऽमिता । पदानि । तानि । विदु: । ब्राह्मणा: । ये । मनीषिण: । गुहा । त्रीणि । निऽहिता । न । इङ्गयन्ति । तुरीयम् । वाच: । मनुष्या: । वदन्ति ॥१५.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 27
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    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (वाक्=वाचः) वाणी के (चत्वारि) चार [परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी रूप] (परिमिता) परिमाणयुक्त (पदानि) जानने योग्य पद हैं, (तानि) उनको (ब्राह्मणाः) वे ब्राह्मण [ब्रह्मज्ञानी] (विदुः) जानते हैं (ये) जो (मनीषिणः) मननशील हैं। (गुहा) गुहा [गुप्त स्थान] में (निहिता) रक्खे हुए (त्रीणि) तीन [परा, पश्यन्ती और मध्यमा रूप पद] (न) नहीं (ईङ्गयन्ति) चलते [निकलते] हैं, (मनुष्याः) मनुष्य [साधारण लोग] (वाचः) वाणी के (तुरीयम्) चौथे [वैखरी रूप पद] को (वदन्ति) बोलते हैं ॥२७॥

    भावार्थ

    वाणी की चार अवस्थाएँ हैं−परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। १−नादरूपा मूल आधार नाभि से निकलती हुई परा वाक् है, २−वही हृदय में पहुँचती हुई पश्यन्ती वाक् है, ३−वही बुद्धि में पहुँचकर उच्चारण से पहिले मध्यमा वाक् है, इन तीनों को योगी ही समझते हैं, और ४−मुख में ठहरकर तालु ओष्ठ आदि के व्यापार से बाहिर निकली हुई वैखरी वाक् है, जिस को सब साधारण मनुष्य समझते हैं। विद्वान् लोग अवधारण शक्ति बढ़ाकर प्राणियों के भीतरी भावों को जानकर आनन्द पावें ॥२७॥ पदपाठ में (ईङ्गयन्ति) के स्थान पर [इङ्गयन्ति] है−ऋक्० १।१६४।४५। तथा निरुक्−१३।९ ॥

    टिप्पणी

    २७−(चत्वारि) चतुर्विधानि परा पश्यन्ती मध्यमा वैखरीति। एकैव नादात्मिका वाक् मूलाधारनाभिप्रदेशाद् उदिता सती परेत्युच्यते, सैव हृदयगामिनी पश्यन्तीत्युच्यते, सैव बुद्धिं गता विवक्षां प्राप्ता मध्यमेत्युच्यते, यदा सैव मुखे स्थिता ताल्वोष्ठादिव्यापारेण बहिर्निर्गच्छति तदा वैखरीत्युच्यते। (वाक्) वाचः (परिमिता) परिमाणयुक्तानि (पदानि) वेदितुं योग्यानि प्रयोजनानि (तानि) (विदुः) जानन्ति। (ब्राह्मणाः) अ० २।६।३। ब्रह्मज्ञानिनः (ये) (मनीषिणः) अ० ३।५।६। मननशीलाः। मेधाविनः-निघ० ३।१५। (गुहा) गुहायाम्। गुप्तदेशे (त्रीणि) परापश्यन्तीमध्यमारूपाणि (निहिता) स्थापितानि (न) निषेधे (ईङ्गयन्ति) इङ्गयन्ति। चेष्टन्ते। प्रकाशन्ते (तुरीयम्) चतुर्थं पदम्। वैखरीरूपम् (वाचः) वाण्याः, (मनुष्याः) साधारणजनाः (वदन्ति) उच्चारयन्ति ॥

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    विषय

    ज्ञान के चार विभाग

    पदार्थ

    १. (वाक्) = [वाचः] वाणी के (पदानि) = प्रतिपाद्य विषय (चत्वारि परिमिता) = चार की संख्या में मपे हुए हैं। 'ऋक् प्रकृतिविज्ञान, यजुः कर्मविज्ञान, साम उपासना व अध्यात्मशास्त्र, अथर्व रोगशास्त्र व युद्धशास्त्र'। (तानि) = उन चारों वेदों को (ये) = जो (मनीषिण:) = मन का शासन करनेवाले, (आमोद) = प्रमोदों की इच्छा से ऊपर उठे हुए (ब्राह्मणा:) = ज्ञानी व्यक्ति है, वे ही (विदुः) = जानते हैं। २. सामान्य मनुष्यों के अन्दर तो गुहा-हृदयगुहा में (निहिता) = रक्खे हुए (त्रीणी) = ऋग्यजुः व सामरूप ये मन्त्र (न इङ्गयन्ति) = नाममात्र भी गतिवाले नहीं होते। ('यस्मिनच: सामयजूषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा:')। ये हम सबके मनों में स्थित हैं। उन्हें प्रसुसावस्था से जानदवस्था में लाना मनीषी ब्राह्माणों का ही काम है। (मनुष्या:) = सामान्य मनुष्य तो (वाच:) = वाणी के (तुरीयम्) = चतुर्थांश का ही (वदन्ति) = उच्चारण करते हैं। ये आयुर्वेद व युद्धशास्त्र तक ही सीमित ज्ञानवाले रह जाते हैं।

    भावार्थ

    हम आयुर्वेद और अर्थशास्त्र के अध्ययन के साथ ज्ञान, कर्म व उपसना' पर बल देते हुए 'चतुष्पाद् ज्ञानवृक्ष' वाले बनें।

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    भाषार्थ

    (वाक्) वाणी है (चत्वारि) चार (परिमिता) मापे हुए (पदानि) पद या वाणी के हैं चार स्थान (तानि) उन्हें (मनीषिणः) मन का संयम करने वाले (ब्राह्मणाः) वेदज्ञ (विदुः) जानते हैं। (त्रीणि) तीन पद (गुहा निहिता) गुहा [बुद्धि] में रखे हुए (न इङ्गयन्ति) गति नहीं करते अर्थात् अज्ञात रहते हैं, (वाचः) वाणी के (तुरीयम्) चतुर्थांश को (मनुष्याः) मनुष्य (वदन्ति) बोलते हैं।

    टिप्पणी

    [चत्वारि= नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात (महर्षि दयानन्द)। परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी, –ये ४ पद अर्थात् शब्द [सुबन्त, तिङन्त पद] है, या चार इनके स्थान है। चारों पदों के स्वरूपों और स्थानों को वेदज्ञ मनीषी जानते हैं। तीन पद तो बुद्धि में या गुफा में मानो छिपे रहते हैं। सब मनुष्य केवल वाणी के चतुर्थांश [वैखरी] को बोलते हैं। परा= बुद्धि के अन्तःस्थल में अज्ञायमान संस्कार रूप में वर्तमान वाणी। पश्यन्ती = बुद्धि में विभक्त पदों में निष्ठ वाणी। मध्यमा= मन में अशब्दरूप में निष्ठ विचाररूपा वाक्यवाणी। वैखरी = कण्ठ तथा मुखावयवों द्वारा खर अर्थात् कठोर स्वरूपा बोली जाने वाली वाणी]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    There are four stages of the evolution of speech which Vak comprehends and which men of thought and higher vision know. Three of them are hidden in the cave, they move not, neither are they analysed. Only the fourth part, ‘turiya’, they speak in ordinary human communication. (Four constituents of the structure of language are: Nama or name-words of things, Akhyata or root words of verbs, Upasarga or affixes, and Nipata or accepted forms. These four, analysed this way, are subjects for the linguists and grammarians, not for the ordinary speaker. For the ordinary speaker, language is speech, just what it is and accepted without the understanding of structure and grammar. For such a person, it is behaviour purely at the social level and means what it does. But at the higher level, language is analysed into four layers of existence and consciousness: Para or language at the transcendental level beyond thought and imagination. It may be regarded as the language correspondence of God’s omniscience. The second is Pashyanti, one step closer to us from Para. It may be understood as the language existing in the unconscious layers of the mind. The third is Madhyama, another step closer to our consciousness. It may be regarded as existing in our sub-conscious mind. And the fourth is Vaikhari, existing at the conscious level of the mind and operative in communication at the social level. This is the fourth part called ‘turiya’ in the mantra. This is analysed into Nama, Akhyata, Upasarga amd Nipata. Yet another way, language may be understood in Vedic terminology: Ila, the language of omniscience, Sarasvati, the language of Veda, and Mahi, spoken language at the level of the earth, nation, region, family and the mother (Rgveda 1, 13, 9).

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    Translation

    Four are the definite grades of speech; those learned, who are wise, know them; three deposited in secret, indicate no meaning; men speak the fourth grade of speech (Four grades of speech : Om, Bhuh, Bhuvah, Svah, also known as Para, Pasyanti, Madhyama, and Vaikhari; Para is the innermost at the origin; Pasyanti pertains to heart, Madhyam to intellect and Vaikhari the phonetically expressed through the organs of speech). (Also Rg. I.164.45)

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    Translation

    There are four divisions in which the speech has been measured out. The devotees of God who have the thorough wisdom comprchaed them. Three kept concealed in the recess of heart cause no motion and of these speech men speak only fourth division. [N.B : These. divisions are—Para, Pashyanti, Madhyama and Vaikhari.]

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    Translation

    Speech hath been measured out in four divisions: the Brahmans who have wisdom comprehend them. Three, kept in close concealment, cause no motion. Of speech men speak the fourth divisionally.

    Footnote

    See Rig, 1-164-45. Four divisions have been interpreted differently by scholars. Some interpret them as Bhur, Bhuva, Suva, and Om. Niruktists interpret them as Rig, Yajur, Sama and worldly speech. The first three reside in God. Some interpret them as (1) परा that rises from the navel (2) पश्यन्ती that rises from the heart (3) मध्यमा that rises from mind (4) वैखरी that comes out of the mouth. The yogis alone understand the first three divisions. Some interpret them as (1) Fire in the Earth (2) Air in space (3) Sun in 1 Heaven (4) Analysed speech.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−(चत्वारि) चतुर्विधानि परा पश्यन्ती मध्यमा वैखरीति। एकैव नादात्मिका वाक् मूलाधारनाभिप्रदेशाद् उदिता सती परेत्युच्यते, सैव हृदयगामिनी पश्यन्तीत्युच्यते, सैव बुद्धिं गता विवक्षां प्राप्ता मध्यमेत्युच्यते, यदा सैव मुखे स्थिता ताल्वोष्ठादिव्यापारेण बहिर्निर्गच्छति तदा वैखरीत्युच्यते। (वाक्) वाचः (परिमिता) परिमाणयुक्तानि (पदानि) वेदितुं योग्यानि प्रयोजनानि (तानि) (विदुः) जानन्ति। (ब्राह्मणाः) अ० २।६।३। ब्रह्मज्ञानिनः (ये) (मनीषिणः) अ० ३।५।६। मननशीलाः। मेधाविनः-निघ० ३।१५। (गुहा) गुहायाम्। गुप्तदेशे (त्रीणि) परापश्यन्तीमध्यमारूपाणि (निहिता) स्थापितानि (न) निषेधे (ईङ्गयन्ति) इङ्गयन्ति। चेष्टन्ते। प्रकाशन्ते (तुरीयम्) चतुर्थं पदम्। वैखरीरूपम् (वाचः) वाण्याः, (मनुष्याः) साधारणजनाः (वदन्ति) उच्चारयन्ति ॥

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