ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 119/ मन्त्र 4
ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
यु॒वं भु॒ज्युं भु॒रमा॑णं॒ विभि॑र्ग॒तं स्वयु॑क्तिभिर्नि॒वह॑न्ता पि॒तृभ्य॒ आ। या॒सि॒ष्टं व॒र्तिर्वृ॑षणा विजे॒न्यं१॒॑ दिवो॑दासाय॒ महि॑ चेति वा॒मव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । भु॒ज्युम् । भु॒रमा॑णम् । विऽभिः॑ । ग॒तम् । स्वयु॑क्तिऽभिः । नि॒ऽवह॑न्ता । पि॒तृऽभ्यः॑ । आ । या॒सि॒ष्टम् । व॒र्तिः । वृ॒ष॒णा॒ । वि॒ऽजे॒न्य॑म् । दिवः॑ऽदासाय । महि॑ । चे॒ति॒ । वा॒म् । अवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं भुज्युं भुरमाणं विभिर्गतं स्वयुक्तिभिर्निवहन्ता पितृभ्य आ। यासिष्टं वर्तिर्वृषणा विजेन्यं१ दिवोदासाय महि चेति वामव: ॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। भुज्युम्। भुरमाणम्। विऽभिः। गतम्। स्वयुक्तिऽभिः। निऽवहन्ता। पितृऽभ्यः। आ। यासिष्टम्। वर्तिः। वृषणा। विऽजेन्यम्। दिवःऽदासाय। महि। चेति। वाम्। अवः ॥ १.११९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 119; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे वृषणाऽश्विना युवं वां भुरमाणं भुज्युं विभिर्गतमिव स्वयुक्तिभिः पितृभ्यो निवहन्ता सन्तौ यद्वां मह्यवो वर्त्तिः सैन्यं चेति तच्च संगृह्य दिवोदासाय विजेन्यमायासिष्टम् ॥ ४ ॥
पदार्थः
(युवम्) युवाम् (भुज्युम्) भोगमर्हम् (भुरमाणम्) पुष्टिकारकम्। डुभृञ्धातोः शानचि व्यत्येन शो बहुलं छन्दसीत्युत्वं च। (विभिः) पक्षिभिरिव (गतम्) प्राप्तम् (स्वयुक्तिभिः) आत्मीयप्रकारैः (निवहन्ता) नितरां प्रापयन्तौ (पितृभ्यः) राजपालकेभ्यो वीरेभ्यः (आ) (यासिष्टम्) यातम् (वर्त्तिः) वर्त्तमानं सैन्यम् (वृषणा) सुखवर्षकौ (विजेन्यम्) विजेतुं योग्यम् (दिवोदासाय) विद्याप्रकाशदात्रे सेनाध्यक्षाय (महि) महत् (चेति) संज्ञायते। अत्राडभावः। (वाम्) युवयोः (अवः) रक्षकम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
सेनापतिभिर्यत्सैन्यं हृष्टं पुष्टं स्वभक्तं विज्ञायेत तद्विविधैर्भोगैः सुशिक्षया च संयोज्यागामिलाभाय प्रवर्त्येदृशेन युध्वा शत्रवो विजेतुं शक्यन्ते ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वृषणा) सुख वर्षाने और सब गुणों में रमनेहारे सभासेनाधीशो ! (युवम्) तुम दोनों (वाम्) अपनी (भुरमाणम्) पुष्टि करनेवाले (भुज्युम्) भोजन करने के योग्य पदार्थ को (विभिः) पक्षियों ने (गतम्) पाये हुए के समान (स्वयुक्तिभिः) अपनी रीतियों से (पितृभ्यः) राज्य की पालना करनेहारे वीरों के लिये (निवहन्ता) निरन्तर पहुँचाते हुए (महि) अतीव (अवः) रक्षा करनेवाले पदार्थ और (वर्त्तिः) जो सेनासमूह (चेति) जाना जाय, उसको भी लेकर (दिवोदासाय) विद्या का प्रकाश देनेवाले सेनाध्यक्ष के लिये (विजेन्यम्) जीतने योग्य शत्रुसेनासमूह को (आ, यासिष्टम्) प्राप्त होओ ॥ ४ ॥
भावार्थ
सेनापतियों से जो सेनासमूह हृष्ट-पुष्ट अर्थात् चैनचान से भरा-पूरा खाने-पीने से पुष्ट अपने को चाहता हुआ जान पड़े, उसको अनेक प्रकार के भोग और अच्छी सिखावट से युक्त कर अर्थात् उक्त पदार्थ उनको देकर आगे होनेवाले लाभ के लिये प्रवृत्त करा, ऐसे सेनासमूह से युद्धकर शत्रु जन जीते जा सकते हैं ॥ ४ ॥
विषय
प्राणसाधना से पहले व प्राणसाधना के बाद
पदार्थ
१. प्राणसाधना करने से पहले एक व्यक्ति भोग - प्रवण होता है । वह भोजन से ही अपना मेल रखने के कारण ‘भुज्यु’ है । वह मानो खाने के लिए ही जीता हो । सदा अपने भरण - पोषण में ही लगे रहने से वह ‘भुरमाण’ है - ‘भरण के स्वभाववाला’ । इसकी चेष्टाएँ [गतम्] पक्षियों के सदृश [विभिः] होती हैं । जैसे पक्षी एक वृक्ष से उड़कर दूसरे - दूसरे वृक्ष पर पहुँचते हैं । वहाँ कोई फल खाया और तीसरे वृक्ष पर पहुँचे , इसी प्रकार यह व्यक्ति भी कभी किसी होटल में और कभी किसी होटल में भटकता फिरता है । प्राणसाधना का प्रारम्भ हुआ और इसके जीवन में भी परिवर्तन आया । अब यह पितरों के समीप उपस्थित होता है , उनसे ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । हे (वृषणा) = सुखों का वर्षण करनेवाले प्राणापानो ! (युवम्) = आप (भुज्युम्) = भोगप्रवण , (भुरमाणम्) = सदा भरण में ही लगे हुए , (विभिः गतम्) = पक्षियों के सदृश चेष्टावाले , खान - पान में व्यस्त इस पुरुष को (स्व - युक्तिभिः) = आत्मतत्त्व के साथ योगवाले इन्द्रियाश्वों के द्वारा , अर्थात् जो इन्द्रियाँ बाह्य विषयों से पराङ्मुख होकर कुछ अन्तर्मुख हुई हैं - उन इन्द्रियों के द्वारा (पितृभ्यः) = ज्ञान के द्वारा रक्षण करनेवाले पितरों के समीप (आ - निवहन्ता) = सब प्रकार से प्राप्त कराते हो । २. इन पितरों से ज्ञान प्राप्त करके भुरमाण - भुज्यु अब पक्षियों की भांति खाता ही नहीं रहता । यह ज्ञान के द्वारा सब बुराइयों का उपक्षय करनेवाला दिवोदास बनता है । (दिवोदासाय) = इस दिवोदास के लिए हे प्राणापानो ! आप (विजेन्यं वर्तिः) = विजयशील गृह (यासिष्टम्) = प्राप्त कराते हो । इस दिवोदास का यह शरीर - गृह कभी वासनाओं से पराजित नहीं होता । ३. इस प्रकार हे प्राणापानो ! (वाम्) = आपका (अवः) = रक्षण (महि चेति) = महान् जाना जाता है । इससे बढ़कर रक्षा और क्या हो सकती है कि भुज्यु का भुज्युत्व समास होता है और वह दिवोदास बन जाता है - भोगप्रवण पुरुष योगप्रवण हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से पूर्व हम भोगासक्त जीवनवाले थे । प्राणसाधना ने हमारे जीवन को भोगों से ऊपर उठाकर प्रकाशमय बना दिया है ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( वृषणा ) प्रजा पर सुखों की और शत्रुओं पर शरों की वर्षा करने में कुशल, नायको ! अथवा बलवान् वीर्यवान् स्त्री पुरुषों ! (युवं) आप दोनों ( विभिः ) विद्वानों और वेगवान् अश्वारोहियों से युक्त, (भुज्युं) सबके पालक और ( भुरमाणं ) सबके भरण पोषण करने हारे नायक को ( स्वयुक्तिभिः ) अपने नाना उपायों से ( पितृभ्यः ) पालक जनों के हित के लिये ( नि वहन्ता ) विशेष रूप से अपने ऊपर धारण करते हुए ( विजेन्यम् ) विशेष जय प्राप्त कराने वाले ( वर्त्तिः ) प्रयत्न ( यासिष्टं ) करें। और ( दिवोदासाय ) ज्ञान प्रकाश देने वाले पुरुष के लिये ( वाम् ) आप दोनों की ( महि अवः चेति ) बड़ी भारी रक्षा जानी जाती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ६ निचृज्जगती । ३,७, १७ जगती । ८ विराड् जगती । २, ५, ९ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सेनापतींनी जी सेना धष्टपुष्ट अर्थात शांतपणे खानपान करून पुष्ट झालेली व स्वभक्त असेल तिला अनेक प्रकारचे भोग देऊन चांगली शिकवण द्यावी व वरील पदार्थ देऊन पुढील लाभासाठी प्रवृत्त करावे. अशा सेनेद्वारे युद्ध करून शत्रूंना जिंकता येते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, brave and generous heroes, with your own powers and plans and with your chariots flying like birds, take a powerful force to the protector and defender of the nation gone to a state of isolation, rescue him and carry him home to the parental seniors and sustainers of the people. Your support and protection for the giver of light and knowledge, who is a servant of heaven, is great and well-known.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly and Commander of the Army, O showerers of happiness, you supply methodically to the brave soldiers who are protectors of your State, enjoyable or delicious and nourishing food like the one picked up by birds. What ever protecting and conquering army you have got, you put it under the charge of the Chief Commander who is giver of the light of knowledge,
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पितृभ्यः) राज्यपालकेभ्यः वीरेभ्यः = For the brave soldiers who are protectors of the State. (दिवोदासाय) विद्याप्रकाशदात्रे सेनाध्यक्षाय For the Chief Commander who is giver of the light of knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the Commanders of the Army to feed and train well the army that is strong brave and loyal, so that it may be utilized for conquering the enemies whenever a battle becomes inevitable.
Translator's Notes
The word दिवोदास is derived from दिवु क्रीडा विजिगीषा व्यवहार द्युतिस्तुतिमौदमद स्वप्न कान्तिगतिषु Here the meaning of द्युति or light has been taken. दास is derived from दासृ-दाने भ्वाo Therefore the meaning of giver has been taken. It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson and others to take it as the name of a particular King, instead of taking it as a derivative noun, denoting certain attributes.
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