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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 119 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 119/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वोर॑श्विना॒ वपु॑षे युवा॒युजं॒ रथं॒ वाणी॑ येमतुरस्य॒ शर्ध्य॑म्। आ वां॑ पति॒त्वं स॒ख्याय॑ ज॒ग्मुषी॒ योषा॑वृणीत॒ जेन्या॑ यु॒वां पती॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वोः । अ॒श्वि॒ना॒ । वपु॑षे । यु॒वा॒ऽयुज॑म् । रथ॑म् । वानी॒ इति॑ । ये॒म॒तुः॒ । अ॒स्य॒ । शर्ध्य॑म् । आ । वा॒म् । प॒ति॒ऽत्वम् । स॒ख्याय॑ । ज॒ग्मुषी॑ । योषा॑ । अ॒वृण॒ी॒त॒ । जेन्या॑ । यु॒वाम् । पती॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवोरश्विना वपुषे युवायुजं रथं वाणी येमतुरस्य शर्ध्यम्। आ वां पतित्वं सख्याय जग्मुषी योषावृणीत जेन्या युवां पती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवोः। अश्विना। वपुषे। युवाऽयुजम्। रथम्। वाणी इति। येमतुः। अस्य। शर्ध्यम्। आ। वाम्। पतिऽत्वम्। सख्याय। जग्मुषी। योषा। अवृणीत। जेन्या। युवाम्। पती इति ॥ १.११९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 119; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अश्विना युवोः शर्ध्यं युवायुजं रथमस्य मध्ये स्थितौ वाणी वपुषे येमतुर्वां युवयोः सख्याय जेन्या पती युवां पतित्वं जग्मुषी योषा सती हृद्यं स्त्रियं पतिमावृणीत ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (युवोः) (अश्विना) सभासेनाधीशौ (वपुषे) सुरूपाय (युवायुजम्) युवाभ्यां युज्यते तम्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्यप्राप्तोऽपि युवादेशः। (रथम्) रमणीयं सैन्यादियुक्तं यानम् (वाणी) उपदेशकाविव। इञ् वपादिभ्य इति शब्दार्थाद्वणधातोरिञ्। (येमतुः) नियच्छतः (अस्य) राज्यकार्य्यस्य मध्ये (शर्ध्यम्) शर्द्धेषु बलेषु भवम् (आ) (वाम्) युवयोः (पतित्वम्) पालकभावम् (सख्याय) सख्युः कर्मणे (जग्मुषी) गन्तुं शीला (योषा) प्रौढा ब्रह्मचारिणी युवतिः (अवृणीत) स्वीकुर्य्यात् (जेन्या) जनेषु नयनकर्त्तृषु साधू (युवाम्) (पती) अन्योऽन्यस्य पालकौ ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ब्रह्मचर्यं कृत्वा प्राप्तयौवनावस्था विदुषी कुमारी स्वप्रियं पतिं प्राप्य सततं सेवते यथा च कृतब्रह्मचर्यो युवा स्वाभीष्टां स्त्रियं प्राप्यानन्दति तथैव सभासेनापती सदा भवेताम् ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) सभासेनाधीशो ! (युवोः) तुम अपने (शर्ध्यम्) बलों से युक्त (युवायुजम्) तुमने जोड़े (रथम्) मनोहर सेना आदि युक्त यान को (अस्य) इस राजकार्य के बीच में स्थिर हुए (वाणी) उपदेश करनेवालों के समान (वपुषे) अच्छे रूप के होने के लिये (येमतुः) नियम में रखते हो (वाम्) तुम दोनों के (सख्याय) मित्रपन अर्थात् अतीव प्रीति के लिये (जेन्या) नियम करते हुओं में श्रेष्ठ (पती) पालना करनेहारे (युवाम्) तुम्हारे साथ (पतित्वम्) पतिभाव को (जग्मुषी) प्राप्त होनेवाली (योषा) यौवन अवस्था से परिपूर्ण ब्रह्मचारिणी युवति स्त्री तुममें से अपने मन से चाहे हुए पति को (आ, अवृणीत) अच्छे प्रकार वरे ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ब्रह्मचर्य्य करके यौवन अवस्था को पाए हुए विदुषी कुमारी कन्या अपने को प्यारे पति को पाय निरन्तर उसकी सेवा करती है और जैसे ब्रह्मचर्य को किये हुए ज्वान पुरुष अपनी प्रीति के अनुकूल चाही हुई स्त्री को पाकर आनन्दित होता है। वैसे ही सभा और सेनापति सदा होवें ॥ ५ ॥

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    विषय

    वेदवाणी का प्राणापान को पतिरूप में वरना

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवोः) = आप दोनों के वाणी - [वननीयौ प्रशस्यौ] प्रशंसनीय ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप (अश्व युवायुजम्) = आपसे जोते जाते हुए व युक्त होते हुए (रथम्) = शरीररूप रथ को (वपुषे) = [शोभनार्थम् - सा०] शोभा के लिए (अस्य शर्ध्यम्) = इस रथ के लक्ष्यस्थान पर (येमतुः) = प्राप्त कराते हैं अथवा लक्ष्यस्थान की ओर इसका संयम करते हैं - इसे उसी ओर चलाते हैं । अन्तिम लक्ष्यस्थान ब्रह्मलोक की प्राप्ति है , अतः इसे ब्रह्म की ओर ले - चलते हैं । २. इस समय हे प्राणापानौ ! (वाम्) = आपकी (सख्याय) = मित्रता के लिए (आजग्मुषी) = आनेवाली (योषा) = प्रभु की कन्यारूप यह वेदवाणी (पतित्वम्) = आपके पतिभाव को (आवृणीत) = वरती है , आपको अपना पति बनाती है , अर्थात् प्राणसाधना से यह वेदवाणी हमें पत्नीरूप में प्राप्त होती है । (युवाम्) = आप दोनों को यह (पती) = पतिरूप में (जेन्या) = जीतनेवाली होती है । ऐसा होने पर यह सचमुच हमारे घर को बड़ा सुन्दर बनाती है , उसमें से बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों को प्राप्त कराती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से इन्द्रियाश्व शरीर - रथ को ब्रह्म की ओर ले - चलते हैं । इस ब्रह्म की कन्यारूप वेदवाणी हमारे प्राणापानों को पतिरूप में वरती है , परिणामतः हमारा जीवन निर्दोष व गुणों से मण्डित बनता है । यह वेदवाणी ब्रह्म की योषा है - [यु मिश्रणामिश्रणयोः] बुराइयों से अलग करने तथा अच्छाइयों से मिलानेवाली ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) स्त्री पुरुषो ! ( युवोः ) आप दोनों के (युवा युजं )आप दोनों के ही परस्पर प्रेम और इच्छा पूर्वक मिल कर एक हो जाने वाले, ( शर्ध्यम् ) बलपूर्वक धारण करने योग्य, ( रथम् ) रमणकारी, आनन्ददायक गृहस्थ रूप रथ को ( अस्य वाणी ) इस गृहस्थ तत्व के विषय में उपदेश करने में कुशल विद्वान् आचार्य और पुरोहित तुम दोनों को ( वपुषे ) उत्तम रीति से वीजवपन द्वारा सन्तान उत्पन्न करने के लिये ( येमतुः ) विवाहित करते हैं, तुम दोनों को गृहस्थ के कर्त्तव्य में बांधते हैं । ( वां ) तुम दोनों का इस गृहस्थ में ( पतित्वम् ) स्वामित्व समान रूप से हो । इस कार्य में ( सख्याय जग्मुषी ) हे पुरुष तेरे सखा भाव में जाने वाली, तेरा मित्र होकर रहने वाली ( जेन्या योषा ) पुरुष के हृदय को जीतने वाली, अथवा सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ वधू ही ( अवृणीत ) वरण करे । तब ( युवां ) तुम दोनों ( पती ) एक दूसरे के पति पत्नी होकर रहो। अथवा—तब ( युवां जेन्या पती ) तुम दोनों एक दूसरे का हृदय जीतने वाले अथवा सन्तानोत्पादक पति पत्नी होकर रहो । [ २ ] सभा सेनाध्यक्षों या नायकों के पक्ष में—हे (अश्विना) प्रमुख नायको ! ( युवोः युवायुजं ) तुम दोनों के ही जुड़ने वाले (शर्ध्यम्) बलपूर्वक संग्राम करने योग्य ( रथं ) रथ को (वाणी) आज्ञाकारी दो उपदेश सारथी ही ( वपुषे ) शत्रुओं को खण्ड खण्ड कर देने के लिये ( अस्य ) इस राष्ट्र के हित के लिये ( येमतुः ) नियम में चलावें । ( सख्याय जग्मुषी योषा ) मित्र भात्र को प्राप्त होने वाली स्त्री के समान सेना और सभा ( वां पतित्वं अवृणीत ) तुम दोनों का पति रूप से वरण करे । ( युवां जेन्या पती ) तुम दोनों विजयशील सभा और सेना के स्वामी होकर रहो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ६ निचृज्जगती । ३,७, १७ जगती । ८ विराड् जगती । २, ५, ९ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे ब्रह्मचर्ययुक्त युवती विदुषी कुमारी कन्या आपल्या पतीचे प्रेम प्राप्त करून निरंतर त्याची सेवा करते तसेच ब्रह्मचर्य पालन केलेला तरुण पुरुष आपल्या प्रीतिनुकूल इच्छित स्त्रीला प्राप्त करून आनंदित होतो. तसेच सभा व सेनापती यांनी सदैव व्हावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, brave, generous and friendly heroes, to raise your dignity and grandeur, your voice controls and directs your own chariot and its power and force. And as the bright and beaming maiden of the morning, the dawn, victorious over the dark, desirous of your friendship and protection, opts to join you on the chariot as her lords, so does the bright and beaming nation select you as guardians and defenders of the land.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ashvins (President of the Assembly and Commander of the Army), the preachers of true knowledge occupy the Charming and strong Car in the form of an air craft driven by you, as they are engaged in bringing about the welfare of the State. A Brahmacharini selects a suitable bridegroom for constant friendship in married life and she regards you who are excellent leaders, as protectors of the State.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वाणी) उपदेशकौ = Good speakers or preachers. (जेन्या) जनेषु नयन-कर्तृषु = Good leaders. (अश्विना) सभासेना धोशौ = The President of the Assembly and commander of the Army.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a youthful learned woman gets a husband dear and suitable to her, after the completion of her Bramacharya and serves him well and as a young man who has observed Brahmacharya (continence) enjoys delight having got an agreeable and suitable wife, in the same manner, the President of the Assembly and the Commander of the Army should behave lovingly and faithfully.

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