ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 119/ मन्त्र 9
ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒त स्या वां॒ मधु॑म॒न्मक्षि॑कारप॒न्मदे॒ सोम॑स्यौशि॒जो हु॑वन्यति। यु॒वं द॑धी॒चो मन॒ आ वि॑वास॒थोऽथा॒ शिर॒: प्रति॑ वा॒मश्व्यं॑ वदत् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्या । वा॒म् । मधु॑ऽमत् । मक्षि॑का । अ॒र॒प॒त् । मदे॑ । सोम॑स्य । औ॒शि॒जः । हु॒व॒न्य॒ति॒ । यु॒वम् । द॒धी॒चः । मनः॑ । आ । वि॒वा॒स॒थः॒ । अथ॑ । शिरः॑ । प्रति॑ । वा॒म् । अश्व्य॑म् । व॒द॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्या वां मधुमन्मक्षिकारपन्मदे सोमस्यौशिजो हुवन्यति। युवं दधीचो मन आ विवासथोऽथा शिर: प्रति वामश्व्यं वदत् ॥
स्वर रहित पद पाठउत। स्या। वाम्। मधुऽमत्। मक्षिका। अरपत्। मदे। सोमस्य। औशिजः। हुवन्यति। युवम्। दधीचः। मनः। आ। विवासथः। अथ। शिरः। प्रति। वाम्। अश्व्यम्। वदत् ॥ १.११९.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 119; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विनौ माङ्गलिकौ राजप्रजाजनौ युवं युवां य औशिजः परिव्राड् मदे प्रवर्त्तमाना स्या मक्षिका यथारपत्तथा वां मधुमद्धुवन्यति तस्य सोमस्य दधीचः सकाशान्मन आविवासथः। अथोत स वां प्रीत्यैतदश्व्यं सततं प्रति वदत् ॥ ९ ॥
पदार्थः
(उत) अपि (स्या) असौ (वाम्) युवाम् (मधुमत्) प्रशस्ता मधुरा मधवो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् तत् (मक्षिका) मशति शब्दयति या सा मक्षिका। हनिमशिभ्यां सिकन्। उ० ४। १५४। इति मश धातोः सिकन्। (अरपत्) रपति गुञ्जति (मदे) हर्षे (सोमस्य) धर्मप्रेरकस्य (औशिजः) कमनीयस्य पुत्रः (हुवन्यति) आत्मनो हुवनं दानमादानं चेच्छति। अत्र हुवनशब्दात् क्यचि वाच्छन्दसीतीत्वाभावेऽल्लोपः। (युवम्) युवाम् (दधीचः) विद्याधर्मधारकानञ्चति विज्ञापयति तस्य सकाशात् (मनः) विज्ञानम् (आ) (विवासथः) सेवेथाम् (अथ) आनन्तर्ये। निपातस्य चेति दीर्घः। (शिरः) शिर उत्तमाङ्गवत् प्रशस्तम् (प्रति) (वाम्) युवाम् (अश्व्यम्) अश्वेषु व्याप्तविद्येषु साधु (वदत्) वदेत् ॥ ९ ॥
भावार्थः
अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या तथा मक्षिकाः पार्थिवेभ्यो रसं गृहीत्वा वसतौ संचित्यानन्दन्ति तथैव योगविद्यैश्वर्योपपन्नस्य सत्योपदेशेन सुखे विधातुर्ब्रह्मनिष्ठस्य विदुषः संन्यासिनः समीपात् सत्यां शिक्षां श्रुत्वा मत्वा निदिध्यास्य सदा यूयं सुखिनो भवेत ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मङ्गलयुक्त राजा और प्रजाजनो ! (युवम्) तुम दोनों जो (औशिजः) मनोहर उत्तम पुरुष का पुत्र संन्यासी (मदे) मद के निमित्त प्रवर्त्तमान (स्या) वह (मक्षिका) शब्द करनेवाली माखी जैसे (अरपत्) गूँजती है वैसे (वाम्) तुम दोनों को (मधुमत्) मधुमत् अर्थात् जिसमें प्रशंसित गुण है, उस व्यवहार के तुल्य (हुवन्यति) अपने को देते-लेते चाहता है उस (सोमस्य) धर्म्म की प्रेरणा करने और (दधीचः) विद्या धर्म की धारणा करनेहारे के तीर से (मनः) विज्ञान को (आ, विवासथः) अच्छे प्रकार सेवो (अथ) इसके अनन्तर (उत) तर्कवितर्क से वह (वाम्) तुम दोनों के प्रति प्रीति से इस ज्ञान को और (अश्व्यम्) विद्या में व्याप्त हुए विद्वानों में उत्तम (शिरः) शिर के समान प्रशंसित व्याख्यान को (प्रति, वदत्) कहे ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे माखी पृथिवी में उत्पन्न हुए वृक्ष वनस्पतियों से रस, जिसको सहत कहते हैं उसको, लेकर अपने निवासस्थान में इकट्ठा कर आनन्द करती है, वैसे ही योगविद्या के ऐश्वर्य्य को प्राप्त सत्य उपदेश से सुख का विधान करनेहारे ब्रह्म-विचार में स्थिर विद्वान् संन्यासी के समीप से सत्यशिक्षा को सुन, मान और विचार के सर्वदा तुम लोग सुखी होओ ॥ ९ ॥
विषय
मधुरता से प्रभुस्तवन
पदार्थ
१. (उत) = और हे प्राणापानो ! (औशिजः) = मेधावी का पुत्र , अर्थात् अत्यन्त मेधासम्पन्न यह व्यक्ति (वाम्) = आपको (सोमस्य) = सोम के (मदे) = हर्ष में - वीर्यशक्ति की ऊर्ध्वगति के कारण स्वास्थ्य व प्रकाश के आनन्द में (मधुमत् हुवन्यति) = इस प्रकार माधुर्य से पुकारता है जैसे कि (स्या) = वह (मक्षिका) = मधुवाली मक्खी (अरपत्) = अव्यक्त मधुर शब्द करती है । प्राणसाधना से सोम का रक्षण होता है , जिससे जीवन में एक आनन्द का अनुभव होता है । उस आनन्द में यह आराधना के मधुर शब्दों का उच्चारण करता है । २. हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप (दधीचः) = ध्यान में लगे हुए पुरुष के (मनः) = मन को (आविवासथः) = परिचर्यायुक्त करते हो । प्राणयाम के द्वारा चित्तवृत्ति का निरोध होकर मन प्रभु की परिचर्यावाला बनता है । ३. (अथ) = अब (अश्व्यं शिरः) = [अशू व्याप्ती] सब विद्याओं का व्यापन करनेवाला मस्तिष्क (वां प्रति वदत्) = आपके लिए मधुविद्या का उपदेश देता है । प्राणसाधना से बुद्धि तीन होती है , ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है और इस सृष्टि - रचना में प्रभु की महिमा का दर्शन करनेवाली बनती है । यही मधुविद्या का उपदेश है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से सोम का रक्षण होने पर मनुष्य प्रभुस्तवन करनेवाला बनता है , मन प्रभु - परिचर्यावाला होता है और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे राज प्रजावर्गो ! जिस प्रकार ( मदे ) अति हर्ष में मस्त होकर ( मक्षिका ) मधु मक्षिका (रपत्) कुंजती है उसी प्रकार ( औशिजः ) कान्तिमान् तेजस्वी परमेश्वर या आचार्य का पुत्र या शिष्य, साधक विद्वान् ( सोमस्य ) सोम, परम ज्ञान और आनन्द रस के ( मदे ) परम हर्ष या ( सोमस्य मदे = दमे ) ब्रह्मचर्य पूर्वक वीर्य के दमन या पालन में सावधान होकर ( वां ) तुम दोनों को ( मधुमत् ) मधुर ज्ञान का ( रपत् ) व्यक्त वाणी द्वारा उपदेश करे । और आप से आप (मधुमत्) मधुर अन्नादि पदार्थ ( हुवन्यति ) प्राप्त करे । ( युवं ) आप दोनों वर्ग ( दधीचः ) सकल विद्याओं को धारण करने वाले शिष्यों को प्राप्त होने योग्य, या धारणीय गुणों को प्राप्त आचार्य विद्वान् उपदेष्टा के ( मनः ) मनन करने योग्य ज्ञान का ( आविवासथः ) सब प्रकार से सेवन करो । ( अथ ) और वह ( वाम् प्रति ) तुम दोनों के प्रति ( अश्व्यं शिरः ) विद्या से युक्त मस्तक के समान उन्नत और मुख्य पद प्राप्त करके ( वदत् ) उपदेश करे । विशेष व्याख्या देखो सू० ११६ मं० १२॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ६ निचृज्जगती । ३,७, १७ जगती । ८ विराड् जगती । २, ५, ९ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जशी मधमाशी पृथ्वीवरील वनस्पतींचा रस (मध) आपल्या निवासस्थानी एकत्र करून आनंदित असते तसेच योगविद्येचे ऐश्वर्य प्राप्त करून सत्य उपदेशाने सुखाचे विधान करणाऱ्या, ब्रह्मविचारात स्थिर असलेल्या विद्वान संन्याशाकडून सत्य शिकवण ऐकून, मानून व तसे वागून तुम्ही लोक सदैव सुखी व्हा. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, that bee, seeker of honey, in a mood of ecstasy, hums in praise of you her song of search and celebration. So does Aushija, child of light and grace, invoke and celebrate you in the ecstasy of soma. Come both, enlighten and inspire the mind of Dadhicha, the sagely seeker of knowledge and Dharma, and then, at the head of the seers he would proclaim the Word of cherished wisdom and enlightenment.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O auspicious men belonging to the State and the Public you should get knowledge from that great Sanyasi who is the son of a noble and charming person and who sings sweet words to you, like a murmuring honey-seeking bee in an exhilarating state. He is impeller of Dharma (righteousness) and instructor of those who uphold knowledge and Dharma. Let him lovingly impart that sublime teaching like the head to you that is given by great scholars.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सोमस्य) धर्मप्रेरकस्य = Impeller or prompter of Dharma (righteousness) (औशिजः) कमनीयस्य पुत्रः = The son of a noble or desirable person. (मनः) विज्ञानम् = Knowledge. (अश्व्यम् ) अश्वेषु व्याप्तविघेषु साधु That is good among great scholars. (दधीच:) विद्याधर्मधारकान् अंचति बिज्ञापयति तस्य सकाशात् — = From a Sanyasi who instructs the upholders of a knowledge and Dharma.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! You should listen to the teaching of a highly learned and Yogi Sanyasi who is always devoted to God and having reflected and meditated upon it, you should enjoy happiness, as the bees having picked up juice from various flowers are delighted.
Translator's Notes
षू-प्रसर्वश्वर्ययो: Here the first meaning प्रसव has been taken in the sense of impelling औशिज: is derived from वश-कान्तौ to desire. Hence it means-one who is the son of a desirable or noble person दधौच: is from धा-धारणपोषणयो: and अंचुगतिपूजनयो: hence the meaning as विद्याधर्मकारन् अंचति विज्ञापयति तस्य Among the three meanings of गति the first i. e. ज्ञान or knowledge has been taken here. अशूङ् व्याप्तौ
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